शनिवार, 26 दिसंबर 2009

ग़रीबी और महंगाई

महंगाई को लेकर जिस तरह से हो हल्ला मचाया जा रहा है, उसे कतई उचित नहीं कहा जा सकता। आख़िर अपने प्रधानमंत्री अर्थशास्त्र के ज्ञाता, अपने गृहमंत्री अर्थशास्त्र के पंडित, वित्तमंत्री अर्थशास्त्र के विद्वान। इस स्थिति में अर्थशास्त्र गड़बड़ा जाय, असंभव ही नहीं बल्कि बिल्कुल असंभव है। हो सकता है कि थोड़ी बहुत महंगाई सीमा पार से घुसपैठ की हो, लेकिन इसमें इन तीन राजनेताओं का दोष नहीं बल्कि रक्षामंत्री का दोष नज़र आता है, जो महंगाई के घुसपैठ को रोकने में अक्षम साबित हुए। जहां तक मुझे लगता है, हालांकि यह मेरा व्यक्तिगत मानना है, तीनों विद्वान राजनीतिज्ञ देश से गरीबी का नामोनिशान मिटाना चाहते हैं, और यह तभी संभव है जब देश में एक भी गरीब ना रहे। जब देश में महंगाई नहीं रहेगी तो हर गरीब को दोनों टाइम ना सही एक टाइम रोटी, नमक मिल सकती है। इस तरह गरीब एक टाइम ही सही खा-पी के जिन्दा रह सकता है। पहले भी लोग दाल-रोटी, रोटी-प्याज जैसे कंबिनेशन के सहारे गरीबी को जिन्दा रख लेते थे। लेकिन अगर गरीबी को समूल नष्ट करना है तो व्यवहारिक है कि पहले गरीब को हटाना पड़ेगा। अपने लोकतांत्रिक देश में आप कानून बना के किसी गरीब को हटाने की कोशिश करेंगे तो विपक्षी दल विरोध करके उसका राजनीतिक फायदा उठा सकते हैं और आने वाला चुनाव जीत के सरकार बना सकते हैं। क्योंकि गरीबों की जनसंख्या देश में इतनी तो है, कि वो सरकार बदल दें। इसलिये ही अपनी सरकार महंगाई बढ़ा के गरीबी हटाने का प्रयास कर रही है। क्योंकि महंगाई के बाद अब दाल और प्याज के बारे तो गरीब सोचता ही नहीं, ले देके रोटी नमक का कंबिनेशन बचा रह गया है। तो सरकार का सोचना सही है कि अगर गरीबी को देश से सचमुच हटाना है तो इस कंबिनेशन को भी तोड़ना ही होगा। अगर महंगाई बढ़ी है तो लोगों को प्रसन्न होना चाहिए कि देश से गरीबी जल्द हटने वाली है। क्योंकि तीनों अर्थशात्रियों का गरीबी हटाओ अर्थशास्त्र का सूत्र बिल्कुल सही बैठ गया है।


गरीबी में दाल गलाना पहले ही मुश्किल हो गया था। अब तो आग जलाना ही मुश्किल हो गया है। यानी धीरे धीरे ही सही गरीब दुनिया से हटने की राह तैयार हो चुकी है। यदा कदा कालाहांडी, बुंदेलखंड, बिहार और देश के कई भागों से भूख से मौत की ख़बर आती है। तो कहीं से किसानों के आत्महत्या की ख़बर आती है। तो यह महज इत्तेफाक नहीं है बल्कि सरकार के मेहनत का नतीजा है। वैसे भी महंगाई को लेकर सरकार अकेली नहीं है। विपक्ष भी पूरा मनोयोग से सहयोग कर रहा है। महंगाई पर चर्चा के समय जिस तरह पूरा विपक्ष वाक आउट कर गया, उससे साबित हुआ कि महंगाई जैसे फालतू मुद्दे पर सरकार के मुंह लगना विपक्ष की बेइज्जती है। अपने सांसदों और मंत्रियों को जिस तरह से हवाई जहाज के इकोनामी क्लास में यात्रा कराके सरकार ने अरबों रूपये बचाये और उसके बाद खरबों रूपये बचाने के लिये सरकार ने जिस तरह से सांसदों के परिजनों को मुफ्त हवाई सफर कराने का बिल सदन के पटल पर रखा, उस दौरान एक भी सांसद वाक आउट नहीं किया। क्योंकि इससे देश को अरबों का लाभ होने वाला है। अब सरकार जब गरीबी हटाने में लगी है तो ऐसे कदम उठाकर पूरे विश्व को तो दिखाना ही होगा कि देखो हमारे राजनेताओं का परिवार गरीब नहीं है। यानी गरीबी हटाने की सबसे सकारात्मक शुरूआत। अब सरकार जब गरीबी के साथ गरीब हटाने की ठान ही चुकी है तो उसका दायित्व बनता है कि इस गरीबी का हवाई सर्वेक्षण करवाये। इससे फायदा होगा कि जहां जहां भी गरीब के साथ गरीबी दिखेगी सरकार को हटाने में सहूलियत होगी। आखिर बेचारी बोतल में पानी पीने वाली सरकार कहां कहां लोगों को बाल्टी भर और वो भी शुद्ध पानी उपलब्ध कराये। हवाई जहाज से यात्रा करने वाले हमारे नेता कहां कहां सड़कें बनवायें। कोठियों में रहने वाले नेता कहां कहां खपरैल लगवाते फिरे। वैसे भी हमारी सरकार पहले से ही गरीबी हटाने के लक्ष्य को लेकर चल रही है तभी तो किसान की सारी उपज के दाम का निर्धारण सरकार करती है, लेकिन किसानों से लिये गये उपज की बिक्री का निर्धारण व्यापारी स्वयं करता है। तो गरीबी हटाने के लिये सरकार कटिबद्ध है तो हमारा भी फर्ज बनता है कि हम उसका दिल खोलकर साथ दें और भूख जैसी बीमारियों से मरे जो शायद किसी अमीर को कभी नसीब नहीं होगा! यानी अमीर हम गरीबों जैसा खुशकिस्मत नहीं है!

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

जुगाड़ तंत्र

भई, हम जिस देश में रहते हैं, उस देश में जुगाड़ तंत्र का बहुत बड़ा महत्व है। अगर जुगाड़ हो तो कुछ भी हो सकता है। वैसे आपके पास जुगाड़ है, ताकत है और धन है तो आप कोई भी दिवस मना सकते हैं। अब जुगाड़ की हनक देखिए, मनमोहन सिंह जी का जनता से भले ही कभी सीधा सरोकार ना रहा हो, गरीबी उन्होंने कभी देखी ना हो, भूखे पेट किसी रात सोये न हो, खुले आसमान के नीचे सर्दी की रात भले न गुजारी हो, हल्कू की तरह खेत की रखवाली ना की हो, रोजी रोटी के लिये उन्होंने भले ही पलायन ना किया हो, मवेशियों की तरह भरी रहने वाले द्वितीय श्रेणी के रेल डिब्बे में सफर ना किये हों, फिर भी जुगाड़ की बदौलत वो कम से कम सत्तर करोड़ (शेष आबादी तो ढंग की जिंदगी जी रही है) ऐसे लोगों की नुमाइंदगी कर रहे हैं, जो इनमें से किसी ना किसी दर्द से हर रोज दो चार होते हैं। जुगाड़ ही तो था, कि तमाम गतिरोधों के बावजूद वो पिछले कार्यकाल में पांच साल अपनी सरकार चला ले गये।

अब आते हैं संप्रेरणा, विंप्रेरणा जैसे दिवस पर, भई एक कहावत अपने गांवों में बहुत प्रचलित है-जबरा मारे रोवहूं ना देवे, अब आपके पास ताकत है, आपने लोगों का खून चूस कर अपना साम्राज्य खड़ा किया है, आपके बड़े लोगों से संबंध है तो आप ये दिवस ही क्यों आप कोई दिवस मना सकते हो। खून चूसो दिवस, खून पियो दिवस, दर्द देदो दिवस, खुशी लेलो दिवस, पैसा मत दो दिवस, काम पूरा लो दिवस आदि ऐसे कई दिवस हैं, जिन्हें आप अपने जुगाड़, ताकत और लोगों की मजबूरी के दम पर मना सकते हैं। वैसे भी कुछ जगहों पर दिवस का बहुत महत्व होता है। जैसे अखबार वालों को इन दिवसों को बहुत इंतजार रहता है, जो नव वर्ष से शुरू होकर बड़ा दिन पर खतम होता है। इस बीच जितने भी पर्व, त्यौहार या महापुरूष ( जैसे लालू यादव, शिबू सोरेन, हर्षद मेहता, अब्दुल करीम तेलगी आदि) के जन्म दिवस, पुण्य दिवस (अगर लागू हो तो) का बड़ा महत्व होता है, भई विज्ञापन जो चूसना होता है। अब बेचारा पत्रकार खबर छोड़कर विज्ञापन चूसने में ही ज्यादा व्यस्त रहता है ( विज्ञापन ओसामा बिन लादेन का भी मिल जायें तो ये लोग उसे महात्मा बना के छापने में परहेज नहीं करेंगे, आखिर इसी चौथे स्तम्भ में तो समानता की बात होती है ) आखिर सवाल बिना पगार के नौकरी का जो होता है।

भई, अगर आप बिना पगार मांगे मेहनत से काम करेंगे और सबसे ज्यादा विज्ञापन देंगे तो अखबार मालिक आपकी बहुत इज्जत करता है, हो सकता है जिस दिन भूख या दबा के अभाव में आपकी मौत हो जाये, अखबार आपके पुण्यतिथि पर कोई दिवस मना ले (वैसे इसकी संभावना नहीं है, क्योंकि आप उस अखबार के कर्मचारी थोड़े ही थे)। वैसे भी अखबार मालिक यही सोचता है, हमने पत्रकार बना के इसको इज्जत बख्शी और यह ऊपर से कमा खा ही रहा होगा तो तनख्वाह देने की क्या जरूरत है (अब आप इसको खून चूसना नहीं कह सकते हैं)। भई, जब इस तरह अपने अखबार के पास पैसा बचेगा तो वो कोई ना कोई तो दिवस मनायेगा ही। आखिर थोड़े बहुत पैसे खर्च भी तो करने हैं इनकम टैक्स वगैरह वालों को बताने के लिये। अब आप को आता जाता भले ना हो आप संपादक कम सीईओ के बेटे हैं तो अपने बाप के पुस्तैनी धंधे पर आपका हक तो बनता ही है। अब आप छोटे मोटे पत्रकार तो बनेंगे नहीं (यह दूसरी बात है कि आपको पढ़ने या लिखने आता है कि नहीं) बनेंगे तो संपादक ही बनेंगे नहीं तो डाइरेक्टर साहब बनेंगे। अब वैसे भी पत्रकारिता और मिशन शुद्ध रूप से चाटुकारिता और कमीशन बन चुकी है तो आप अपना धंधा चमकाइयेगा या फिर आम लोगों का दर्द उठाकर अपना व्यवसायिक अहित करियेगा ?

अब जुगाड़ है तो आप को भले ही कुछ नहीं आता हो (संस्थान में आपसे ज्यादा विद्वान लोग मौजूद हों, आपसे ज्यादा सीनियर लोग काम कर रहे हों) परन्तु एडीटर या न्यूज एडीटर और मैनेजर तो आप ही बनेंगे, आखिर सवाल जुगाड़ का जो है। तो भाई लोगों, हम और आप जैसे लोगों को यही कहा जायेगा कि फलाने संस्थान ने निकाल दिया तो भड़ास निकाल रहे हैं, वहां नहीं पटी तो बुराई कर रहे हैं। तो ऐसे भाइयों को बता दूं कि मैं भड़ास वगैरह नहीं निकाल रहा हूं, मैं तो सिर्फ जुगाड़ शब्द का गुणगान कर रहा हूं। अगर चाटुकारिता और कमीशन के मेल के साथ जुगाड़ फिट हो जाये तब तो सोने पे सुहागा हो सकता है। अब जुगाड़ होता तो मेरा भी जन्म दिवस 'जुगाड़ दिवस' के रूप में धूमधाम से मनाया जाता। जुगाड़ ना होने के वजह से घर पर सिर्फ पूड़ी, खीर और पनीर आलू की सब्जी खाकर जन्म दिन मना लेते है (भई, देहात गांव के लोग की खुशियां तो इन्हीं पकवानों से मनती है)। अब जुगाड़ ही तो है, जिसे लिखना पढ़ना नहीं आता, वो भी किसी अखबार का ब्यूरो चीफ हो सकता है! वैसे भी आवाज उठाने वालों को कहीं पसंद नहीं किया जाता (अब बीबी की आवाज सुनना तो मजबूरी है), इसलिये इन संस्थानों में आवाज उठाना अघोषित रूप से गैर कानूनी होता है। इसलिये बंधुओं अगर आपको भी अपना जन्म दिन धांसू तरीके से किसी दिवस के रूप में मनवानी हो तो, आवाज उठाने के बजाय, घर से चलते समय मक्खन लेकर चला करें। खुदा ना खास्ते जुगाड़ लग गया तो सांसद या विधायक तो बन ही जायेंगे, मक्खन कुछ ज्यादा लग गया तो फिर आपको सर्वोच्च सम्मान पाने से कोई भी नहीं रोक सकता, खुद आप भी नहीं। इसलिये बंधुओं किसी दिवस पर रोना धोना छोड़कर जुगाड़ में लग जाइये। कल आप भी खबर बेचने के अच्छे बनिया बन सकते हैं।

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

पुलिस, अपराध और हम

हमारे देश के लोग भोले भाले तो हैं पर इतने नासमझ हैं नहीं पता था। देश के किसी भी हिस्से में कोई भी घटना घटी नहीं कि पुलिस पर दोषारोपण करना शुरू कर देते हैं। समझ में नहीं आता आखिर पुलिस कहां कहां मौजूद रहेगी। अगर सड़क कोई घटना होती है, डकैती होती है, चोरी होती है, अपहरण होता है, लूट होती है, बलात्कार होता है या कोई आतंकी घटना होती है, लोग पुलिस को ही कोसने लगते हैं। पुलिस अगर सड़क पर मौजूद रहती है तो घर में चोरी, लूट हो जाती है। अगर पुलिस घर में मौजूद रहे और सड़क में हादसा हो जाये तो लोग कहते हैं पुलिस हमेशा घर पर ही रहती है। अब आप ही बतायें पुलिस कहां मौजूद रहे सड़क पर या घर में। जब आप को यह सुन के ही चक्कर आने लगा तो बताईये पुलिस का हाल क्या होता होगा।

आरोप लगाने वालों का क्या है, वे तो ये भी कहते हैं कि पुलिस तनख्वाह तो लेती है पर काम नहीं करती। अपराध बढ़ता है तो पुलिस को कोसते हैं,पर यह नहीं सोचते कि जब अपराध बढ़ेगा तब ही तो पुलिस काम करेगी, बिना अपराध बढ़े पुलिस कौन सा काम करेगी। इसलिये अपराध बढ़ा है तो समझिये पुलिस काम कर रही है। हमें तो अपराध बढ़ने की स्थिति में खुश होना चाहिए न कि पुलिस को कोसना चाहिए। वैसे भी खाली दिमाग शैतान का घर होता है। पुलिस भी खाली रहेगी तो यहां छापामारी करेगी वहां छापामारी करेगी। अब पुलिस किसी सेठ के गोदाम पर छापामारी करने, किसी धन्ना के बैंक लॉकर को तलाशने या चोरी छिपे काम करने वालों को परेशान करने तो नहीं बैठी नहीं है! भई पुलिस का काम तो अपराध रोकना है,इसलिये अगर अपराध बढ़ेंगे नहीं तो पुलिस रोकेगी किसको ?

कुछ लोग पुलिस घिनौने आरोप लगाने से भी नहीं चूकते हैं और सबसे दुखद बात यह कि आरोप लगाते समय पुलिस के स्टैण्डर्ड का भी ख्याल भी नहीं रखा जाता है। लोग कहते हैं कि पुलिस अपने संरक्षण में हेरोईन, शराब, गांजा, अफीम, चरस, डीजल, पेट्रोल बिकवा रही है। भई, अब इन नासपीटों को कौन समझाये कि पुलिस यह सब नहीं बिकवायेगी तो क्या मूंगफली और चना बिकवायेगी। आखिर स्टैण्डर्ड भी तो कोई चीज होती है। कुछ तो ये भी कहते हैं पुलिस नकली सामानों की बिक्री करवा रही है। भई, तो क्या हमारे देश की पुलिस इतनी अमीर हो गई है कि वो फैक्ट्री खुलवाकर असली सामान बनवा के बिकवायेगी। आखिर पुलिस ये सारे काम तो बिना किसी तनख्वाह के करती है, सरकार तो उसे सिर्फ अपराध रोकने के पैसे देती है, इस तरह के काम करने के तनख्वाह पुलिस कहां मांगती है। वह तो उपर के सारे काम समाजसेवा समझ कर करती है। अब ऐसे में कोई आरोप लगाये तो बुरा तो लगेगा ही!

वैसे भी जो काम सरकार को करनी चाहिए वो काम हमारे देश की पुलिस कर रही है। पुलिस सैकड़ों बेरोजगारों को अपने दम पर रोजगार उपलब्ध करवा रही है। देश के विभिन्न गली, चौराहों, नुक्कड़ों पर ट्रक, बस, ठेला, खोमचा, मिट्टी के तेल को डीजल बनाने वालों, पानी को शराब बनाने वालों, सरकारी सामानों को बाजार में बेचने वालों से राजस्व अर्जन के कार्य में लगाकर, पुलिस सैकड़ों बेरोजगार युवकों को रोजगार उपलब्ध कराया है। इसके लिये वह सरकार से कोई मदद भी नहीं लेती है। किसी चौराहे या पुलिस पिकेट के पास इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देख सकते हैं। अब आप ही बताईये कि पुलिस अपने बल पर वसूली के लिये लगाये गये युवकों के परिवार का पेट पाल रही है, यह कर पाना और किसी के बस की बात है क्या ? इन युवकों को उनका पारिश्रमिक पुलिसकर्मी ईमानदारी से दे देते हैं, यह आश्चर्यजनक किन्तु सत्य है। अब बताइये युवकों को रोजगार देने वाली पुलिस गलत है?

अपने देश को लेकर एक कहावत बहुत प्रचलित है कि यहां अनेकता में एकता है। तो यह कहावत ऐसे ही नहीं बनी है, इस कहावत में पुलिस वालों का बहुत बड़ा योगदान है। आप पूरब से पश्चिम जाइये, उत्तर से दक्षिण जाइये, आपको राज्यों की भाषा में अंतर मिलेगा, लोगों के रहन सहन में अंतर मिलेगा, बात व्यवहार में अंतर मिलेगा, समय काल में अंतर मिलेगा, परन्तु इसके बावजूद भी आपको किसी राज्य में पुलिस के चाल या चरित्र में कोई अंतर नहीं मिलेगा। सभी राज्यों में पुलिस एक से निर्विकार भाव से अपने कार्य में मशगूल रहती है। उन्हें तो बस अपने कर्म पर पूरा विश्वास रहता है। उदाहरण स्वरूप ध्यान दें- सभी राज्य के पुलिस के पास उनका मुखबिर होता है, कारखास होता है (वैसे यह कोई सरकारी पद नहीं है, किन्तु आपको देश के सभी थानों में यह गैरसरकारी और राजस्व अर्जन के इज्जतदार पद पर कोई न कोई मिल ही जायेगा)। इसीलिये कहा जाता है कि अपने देश में सारी अनेकताओं के बाद भी एकता है तो इसके पीछे अपने देश की पुलिस बहुत बड़ी कारण हैं। अगर आप कई बातों पर गहराई से अध्ययन करें तो सभी प्रदेश के पुलिस में समानता होती है। जैसे मुठभेड़ की कहानी- पुलिस को मुखबिर से सूचना मिलती है, पुलिस अपने पेटेंट अड्डे (यह देश में हर पुलिस थाने का अपना खरीदा गया जमीन होता है, आप पायेंगे कि अधिकांश मुठभेड़ इसी जगह पर होते हैं) पर घेरेबंदी करती है, दो बदमाश मोटरसाइकिल से आते हैं, पुलिस हाथ देती है, वो बाइक की रफ्तार तेज कर लेते हैं, पीछे बैठा बदमाश गोली चलाता है, आत्मरक्षा में पुलिस भी गोली चलाती है, पीछे बैठा बदमाश गिर जाता है, दूसरा बदमाश अंधेरे का लाभ उठा कर भाग जाता है। अमूमन इस तरह की कहानी देश के हर मुठभेड़ में होती है, दिन संख्या या वाहन का अतंर हो सकता है। इससे प्रतीत होता है कि देश में अनेकता में एकता वाला मुहावरा पुलिस की ही देन है।

पुलिस तो जनता की सेवा के लिये है। पुलिस का काम है समाज से अपराध को कम करना। पुलिस जब अपराध को कम करती है तो कुछ लोगों की शिकायत होती है कि पुलिस मामलों को दर्ज नहीं करती है। पुलिस अगर लिखापढ़ी और कागजों के माध्यम से अपराध कम करती है तो किसी को शिकायत नहीं होनी चाहिए। होना भी यही चाहिए की आंकड़ों में अपराध कम हो, क्योंकि आंकड़ों में अपराध कम होगा तो जुर्म कम होंगे। अगर आप लूट लिये जाते हैं, आपके दुकान का शटर तोड़ दिया जाता है, घर में चोरी कर ली जाती है, रेप होता है तो इसमें पुलिस का दोष कहां है। दोष तो आपका है जो पैसा लेकर यहां वहां आते जाते हैं, दुकान में ताला लगाकर निश्चिंत हो जाते हैं, घर पर आराम से सोते हैं। पुलिस के पास अपने काम भी तो हैं तो वो अन्य कामों अपना कितना दिमाग खपायेगी। पुलिस ठीक करती है जो आपका मामला दर्ज नहीं करती है ? जब सारे अपराध पुलिस ही रोकेगी तो हम और आप क्या करेंगे?

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

वसीयत और मूर्ति

वैसे तो छोटे और ग़रीब लोगों को वसीयत लिखने की जरूरत नहीं होती और ना ही इस तरह का कोई अधिकार ही उन्हें प्राप्त होता है। वैसे भी वसीयत लिखना गरीब लोगों का काम नहीं है, क्योंकि उनके पास ऐसा कुछ नहीं होता जिसके लिये वसीयत लिखनी पड़े। वसीयत लिखने के पहले ही सारा हिसाब किताब क्लीयर हो जाता है। बड़ा भाई सरकारी नाले पर कब्जा कर लिया तो छोटा वाला भाई झोपड़पट्टी में। मतलब लड़ाई झगड़ा होने के लिये पर्याप्त मसाला मौजूद रहता है, इसलिये वसीयत लिखकर लड़ाने के लिये कोई खास जगह नहीं बचती। देश में जैसे आम लोग की जिंदगी गुजर जाती है, उस स्थिति में मां-बाप की भी कोई ऐसी इच्छा शेष नहीं बचती कि वो वसीयत लिखे। किन्तु पिछले दिनों वसीयत की महिमा जानने के बाद अब मैं वसीयत लिखने की सोच रहा हूं। बिना वसीयत लिखे मौत आ गई तो फिर मैं नरक में भी मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहूंगा। यमराज भी पूछेगें कि तूझे वसीयत ना लिखने के जुर्म में कौन सी खौफ़नाक सज़ा दी जाय। वसीयत नहीं लिखा तो अब तेरी मूर्ति यहां वहां कैसे लगेगी। हो सकता है मेरी इस लापरवाही पर वो मुझे नरक से भी निकाल दें। इसलिये सारी भावी परेशानियों को देखते हुए मैंने वसीयत लिखने की ठानी है।

वैसे मैं कोई बड़ा आदमी तो नहीं हूं। कोई नेता नहीं हूं, ठेकेदार तो बिल्कुल नहीं हूं, मैं तो केवल एक आम टूच्चा हूं, तो मेरी वसीयत का खर्च उठाने की जिम्मेदारी सरकार को लेनी ही पड़ेगी। शुरू होती है मेरी वसीयत यानि आखिरी इच्छा, लोग वसीयत जीते जी सार्वजनिक नहीं करते परन्तु मैं गरीब वसीयतबाज हूं तो मुझे इसे सार्वजनिक करना ही पड़ेगा। मैं चिरकुट कुमार, मेरी इच्छा है कि मेरे मरने से पहले मेरी मूर्ति मेरी धर्म पत्नी के साथ पूरे देश के गली, कूचों, पार्कों और चौराहों के साथ अगर कूड़े के ढेर के आसपास जगह मिले तो वहां भी लगाया जाय। मेरे घरेलू कुत्ता शावक कुमार की मूर्तियां भी यहां वहां के साथ विभिन्न पार्कों में लगवाया जाय। सभी मूर्तियां उपरोक्त जगहों के बाद अवैध रूप से कब्ज़ा किये हुए जमीन पर, या आम लोगों को ठगने वाले बिल्डरों की जमीन पर लगाया जाय। जिससे हमलोगों की देश विदेश में पहचान बन सके। हम अपने जीवन में बेहतरी के लिये बहुत संघर्ष किया है, हम अपने परिवार और पट्टीदारों को फायदा दिलाने के लिये लिये बहुत मगजमारी की है । पप्पू का लोटा चुराया है, सियाराम का गमला मेरी पत्नी ने चोरी किया, शावक कुमार पड़ोसी की कुत्तिया के साथ नयन मटक्का कर चुका है। हालांकि मैं कभी नेता नहीं बन पाया, बहुत इच्छा थी परन्तु हमारे दादा जी कभी विधायक या सांसद नहीं बन पाये, पिता जी कभी चेयरमैन या मंत्री नहीं रहे, लिहाजा मेरा पुस्तैनी धंधा न होने से मैं राजनीति कभी नहीं कर पाया। चमचागिरी गुण में थोड़ा कम रह गया इसलिए मेरा चावल नहीं गला (क्योंकि दाल इतनी महंगी हो गई है कि उसे खरीदना ही मुश्किल है, गलेगी कहां से)। किसी भी पार्टी ने मुझे चुनाव लड़ने के लिये आमंत्रित नहीं किया क्योंकि मैं कट्टा और बंदूक चला पाने में असमर्थ था। मेरी सरकारी कार्यालयों में घुसने की कभी हैसियत ही नहीं रही तो घोटाले कहां से करता ? लिहाजा मैं इस समाज में कोई बढ़िया काम करने में असमर्थ रहा। इसलिये किसी राजनीतिक पार्टी ने मुझमें दिलचस्पी नहीं दिखाई।

अपनी इसी असमर्थता को दूर करने के लिये ही मैंने वसीयत लिखने की ठानी है। मेरी सपरिवार मूर्ति लगाने की जिम्मेदारी मैं केन्द्र और विभिन्न राज्य सरकारों को देना चाहता हूं। जो सरकारी पैसे यानि आम लोगों के पैसे से हम तीनों लोगो की यहां-तहां मूर्तियां लगवायें। जो राज्य मूर्ति लगवाने में आनाकानी करे, केन्द्र सरकार उसे धारा 356 के तहत बर्खास्त करे। मेरी और मेरे छोटे परिवार की मूर्तियां लगवाने के लिये बकायदा टेंडर निकाला जाय ताकि मूर्तियों के साथ कुछ लोगों को रोजगार तो कुछ लोग को खाने कमाने का मौका मिले। ताकि वे मेरा गुणगान कर सकें और नरक में मेरे लिये कुछ जगह आरक्षित हो जाय। मेरी इच्छा है कि अगर केन्द्र सरकार के पास मेरी मूर्तियां लगाने में धन की कमी आड़े आये तो सरकार स्विस बैंकों से लोन ले, कर्जा ले और अगर बैंक उधार देने में आनाकानी करें तो किसी भारतीय नेता से ही स्विस बैंक के मार्फत लोन लिया जाय। इसके दो फायदे होंगे नेता का धन सफेद हो जायेगा और अपने ही देश में मूर्ति लगाने में खर्च होगा। मेरी और परिवार की मूर्ति लगाने में जितने अरब का भी खर्च हो, उसे केन्द्र और राज्य सरकार मिल कर वहन करें।

मेरी इच्छा है कि इस वसीयत को मेरे जीते जी खोल कर इस पर काम शुरू कर दिया जाये ताकि मैं भी कुछ पैसा बना सकूं। पता नहीं फिर मेरे हाथ इस तरह का मौका लगे या ना लगे। मेरी इच्छा है कि मेरे पुत्र को विभिन्न राजनीतिक दल विधायक और सांसद बनने का मौका प्रदान करें। जिस पार्टी की केन्द्र में सरकार हो मेरे पुत्र को मंत्री बनाने के लिये आमंत्रित करे ताकि वो सरकारी धन का उपयोग अपना सरकारी घर और सरकारी बैंक बैलेंस बनाने में कर सके। अगर मेरा पुत्र एक बार चेयरमैन, विधायक, सांसद या मंत्री बन गया तो फिर कई पुरखों तक हम लोगों को मूर्तियां बनवाने और लगवाने के लिये परेशानी नहीं उठानी पड़ेगी। जहां कब्जा हो गया वहीं सरकारी धन से वो मूर्तियां लगवा देगा। आम जनता भी हमारी मूर्तियों को देखकर प्रसन्न होना सीख लेगी। उसके सामने मूर्तियां लगवाने में रोजगार का अवसर भी प्राप्त होगा। यानि जब हमारे वसीयत पर केन्द्र सरकार काम शुरू करायेगी तो हर तरफ रोजगार ही रोजगार होगा, लोगों पर माया यानि धन की बरसात होगी, लोग खुश तथा प्रसन्न होंगे तो उनके स्वास्थ्य भी सही होंगे। स्वाइन फ्लू की चिंता नहीं सतायेगी वो मलेरिया से ही मर जायेंगे। दूसरी तरफ हमारा आने वाला खानदान पीढ़ी दर पीढ़ी मूर्तियों की लिये नहीं तरसेगा, जैसा कि हमारे दादा जी तरस रहे हैं। सुना है! वसीयत को बदला नहीं जा सकता इस पर अमल करना जरूरी होता है, इसलिये अब मुझे तसल्ली है कि मूर्तियों का सफर जल्द शुरू हो जायेगा और हर तरफ खुशहाली आयेगी।

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

अध्ययन और सर्वेक्षण

संसद में भाईचारा का माहौल देखना रास नहीं आ रहा है। अब किसी बात पर शोर शराबा, नोकझोंक ना हो तो, संसद भी संसद जैसा नहीं लगता है। ऐसा लग रहा है संसद को किसी की नज़र लग गई है। संसद में पहले तभी भाईचारा दिखता था जब सांसद लोगों के वेतन व भत्ते बढ़ाये जाते थे, पर अब तो हर मुद्दे पर सांसदों का एक दूसरे से अपनापन देखना, आम लोगों को ही नहीं बल्कि उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी अच्छा नहीं लग रहा है। संसद का माहौल इंडिया टीवी से दूरदर्शन जैसा नीरस हो गया है। पहले हम भारतवासी भी खुश होते थे, जिसे चुनकर भेजा है, वह संसद में अपना बवाल वाला काम मन लगाकर कर रहा है।

अब तो ऐसा लग रहा है जैसे संसद में हर मौका एकता और भाईचारे का है। देश में महंगाई बढ़ी, सभी पार्टी के सांसदों ने महंगाई पर भी एकता दिखाया। क्योंकि महंगाई में सरकार की तो कोई भूमिका भी नहीं है और विपक्ष को इससे कोई मतलब नहीं है। जनता ने जब से विपक्षी दल के साथ धोखा किया है, तब से बेचारे आपस में ही लड़ाई झगड़ा कर रहे हैं। ये जनता जो ना करा दे। जनता को संसद में ऐसा नजारा देखने को नहीं मिल पा रहा है, जिसके वो आदी हो गये थे। दूसरी तरफ जनता बेकार में हल्ला कर रही है कि दाल, चावल, सब्जी के दाम बढ़ गये हैं। पक्ष-विपक्ष के सेहत पर जब महंगाई से कोई असर नहीं पड़ा तो निश्चित ही महंगाई नहीं बढ़ी होगी। दाल, चावल, सब्जी के कीमत कैसे बढ़ सकता है जब मुद्रास्फीति कम है, अर्थशास्त्र भी यही कहता है। मुद्रास्फीति कम है तो महंगाई कम है। अब महंगाई अर्थशास्त्र से तो बड़ी नहीं है। जिसे अपने पीएम समझ ना सकें। आखिर अपने पीएम भी तो अर्थशास्त्री हैं, मुद्रास्फीति देखकर ही महंगाई को मानेंगे। वैसे भी अपने देश में हवा हवाई परेशानियां ज्यादा हैं। आम लोग बिना मतलब के शोर शराबा करते हैं कि ये परेशानी है या वो परेशानी है। इसलिए सांसद लोग को आम लोग की ऐसी तमाम परेशानियों के अध्ययन के लिये यहां वहां, जहां तहां भेजा जाना चाहिए। ताकि देश की समस्याएं हल हो सकें।

सूखा पर अध्ययन के लिये पन्द्रह सांसदों की समिति को स्वीटजरलैंड, बाढ़ पर चर्चा के लिये एक संसदीय समिति को अमेरिका, आतंकवाद पर अध्ययन के लिये एक समीति इंग्लैंड, महंगाई के संदर्भ में अध्ययन के लिये एक समिति जर्मनी, गरीबी उन्मूलन के अध्ययन के लिये एक समिति साउथ अफ्रीका भेजी जा सकती है। लोकतंत्र को मजबूत करने के लिये एक समिति सिंगापुर, शिक्षा पर अध्ययन के लिये एक समिति न्यूजीलैंड, पब्लिक ट्रांसपोर्ट को मजबूत करने के लिये एक समिति ब्राजील, रेलवे को मजबूत करने के लिये एक समिति आस्ट्रेलिया, अपराध और अपराधी पर रोक के लिये एक समिति पाकिस्तान, नदियों में पानी के आने जाने पर अध्ययन के ‌लिये एक समिति सउदी अरब भेजना चाहिए। हां एक बात और, इन सारी समितियों के अध्ययन के लिये एक समिति कनाड़ा भेजी जा सकती है। सारी समितियों का खर्चा पानी, चिलम-हुक्का सब सरकार द्वारा वहन किया जाना चाहिए।

अगर इन समितियों के बाद कुछ सांसद बाहर जाने से बच जाते हैं तो उन्हें वि‌भिन्न समस्याओं का हवाई सर्वेक्षण करवाया जाना चाहिए। हवाई सर्वेक्षण करने वाले सांसदों को परिवार के दो सदस्यों को फ्री हवाई सर्वेक्षण करने का ऑफर दिया जा सकता है। सूखे का हवाई सर्वेक्षण, बाढ़ का हवाई सर्वेक्षण, महंगाई का हवाई सर्वेक्षण, गरीबी का हवाई सर्वेक्षण, बेरोजगारी का हवाई सर्वेक्षण, मुद्रास्फीति का हवाई सर्वेक्षण, अपराध का हवाई सर्वेक्षण, लोकतंत्र का हवाई सर्वेक्षण करवाया जा सकता है। अगर इसके बाद भी कुछ सांसद बच जायें तो उनके लिये जल सर्वेक्षण का ऑफर दिया जा सकता है। ऐसे सांसदों के लिये गोवा, पांडिचेरी के जल सर्वेक्षण का ऑफर एक बेहतर विकल्प है। ऐसे सांसदों को परिवार के पांच सदस्यों को मुफ्त जल सर्वेक्षण का ऑफर दिया जा सकता है। जल सर्वेक्षण पर नये सांसदों को भेजा जाना चाहिए, सा‌थ सर्वेक्षण के बाद इन सांसदों को वापसी में भारी मात्रा में नकदी भी दी जानी चाहिए ताकि ये हवाई सर्वेक्षण और विदेश गई समितियों के बराबर सरकारी धन खर्च कर सकें। ये कुछ ऐसे कारगर उपाय हैं, जिससे देश की सारी समस्याएं शीघ्र हल की जा सकती हैं। जनता भी खुश होगी कि सांसद कोई काम करें ना करें उनके हित के लिये यहां वहां दौड़ धूप तो कर रहे हैं।

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

चेहरा

इस युग के हर चेहरे का राज बड़ा ही गहरा है
हर गंदे चेहरे के ऊपर सुंदर सा इक चेहरा है
पहचान नहीं आसान किसी की
हर चरित्र ही दोहरा है

इस युग के हर चेहरे का राज बड़ा ही गहरा है
हर जिगर यहां बर्फीला है, दिलों में घना कोहरा है
बदल नहीं सकता कोई खुद को
हर शख्स गूंगा बहरा है

इस युग के हर चेहरे का राज बड़ा ही गहरा है
अमीरों की बस्ती में गरीब बन रहा मोहरा है
कुछ बदलने की उम्मीद नहीं
धोखेबाजों का ऐसा पहरा है

सोमवार, 24 अगस्त 2009

उम्मीद की चौखट पर गांव

साठ-साला आजादी की धूप में भी
कुम्हलाया हुआ-सा गांव
उम्मीद की चौखट पर बैठा
बाट निहार रहा है
अपने उन बेटों का
जो कभी एक अनमनी-सी दोपहरी
"भैया एक्सप्रेस" में बैठकर चले गए परदेस
भूल गए कच्ची दीवारों और फूस की छतवाला
एक घर भी है कहीं उनका
जहां मां गोबर से लीपकर आंगन
जलाती है रोज तुलसी चौके पर दीया
और करती है बेटों के लिए मंगलकामना
खि़ड़की से लगी घूंघट में छिपी दो आंखें
रोज बरसती हैं भादो के मेघ की तरह
और ताकती है बाट पपीहा की तरह
उम्मीद की चौखट पर बैठा गांव
प्रतीक्षा कर रहा अपने उन बेटों का भी
जो अभी गांव की गलियों-चौबारों में
घूमता-टहलता छेड़ता रहता है कोई न कोई धुन
गांव चाहता है कि ये बच्चे
जल्द से जल्द हों काम लायक
और दुनिया के अंधेरों के बीच
सितारे बनकर चमकें
वक्त की डोर को थाम लें अपनी मुट्ठियों में
और बरसों से बंद खिड़कियों को खोलें
उम्मीद के चौखट पर बैठा गांव
निहार रहा है बाट उस अजन्मे शिशु का भी
जिसे लेना है जन्म
और मिटाना है जग का अंधेरा
ताकि फिर कोई न कहे
"गहन है यह अंधकार"
मैं गांव का अभागा बेटा
जो न गांव लौट सकता है
और न गांव को बिसर सकता
सोचता हूं
कब पूरे होंगे गांव के सपने