सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

जुगाड़ तंत्र

भई, हम जिस देश में रहते हैं, उस देश में जुगाड़ तंत्र का बहुत बड़ा महत्व है। अगर जुगाड़ हो तो कुछ भी हो सकता है। वैसे आपके पास जुगाड़ है, ताकत है और धन है तो आप कोई भी दिवस मना सकते हैं। अब जुगाड़ की हनक देखिए, मनमोहन सिंह जी का जनता से भले ही कभी सीधा सरोकार ना रहा हो, गरीबी उन्होंने कभी देखी ना हो, भूखे पेट किसी रात सोये न हो, खुले आसमान के नीचे सर्दी की रात भले न गुजारी हो, हल्कू की तरह खेत की रखवाली ना की हो, रोजी रोटी के लिये उन्होंने भले ही पलायन ना किया हो, मवेशियों की तरह भरी रहने वाले द्वितीय श्रेणी के रेल डिब्बे में सफर ना किये हों, फिर भी जुगाड़ की बदौलत वो कम से कम सत्तर करोड़ (शेष आबादी तो ढंग की जिंदगी जी रही है) ऐसे लोगों की नुमाइंदगी कर रहे हैं, जो इनमें से किसी ना किसी दर्द से हर रोज दो चार होते हैं। जुगाड़ ही तो था, कि तमाम गतिरोधों के बावजूद वो पिछले कार्यकाल में पांच साल अपनी सरकार चला ले गये।

अब आते हैं संप्रेरणा, विंप्रेरणा जैसे दिवस पर, भई एक कहावत अपने गांवों में बहुत प्रचलित है-जबरा मारे रोवहूं ना देवे, अब आपके पास ताकत है, आपने लोगों का खून चूस कर अपना साम्राज्य खड़ा किया है, आपके बड़े लोगों से संबंध है तो आप ये दिवस ही क्यों आप कोई दिवस मना सकते हो। खून चूसो दिवस, खून पियो दिवस, दर्द देदो दिवस, खुशी लेलो दिवस, पैसा मत दो दिवस, काम पूरा लो दिवस आदि ऐसे कई दिवस हैं, जिन्हें आप अपने जुगाड़, ताकत और लोगों की मजबूरी के दम पर मना सकते हैं। वैसे भी कुछ जगहों पर दिवस का बहुत महत्व होता है। जैसे अखबार वालों को इन दिवसों को बहुत इंतजार रहता है, जो नव वर्ष से शुरू होकर बड़ा दिन पर खतम होता है। इस बीच जितने भी पर्व, त्यौहार या महापुरूष ( जैसे लालू यादव, शिबू सोरेन, हर्षद मेहता, अब्दुल करीम तेलगी आदि) के जन्म दिवस, पुण्य दिवस (अगर लागू हो तो) का बड़ा महत्व होता है, भई विज्ञापन जो चूसना होता है। अब बेचारा पत्रकार खबर छोड़कर विज्ञापन चूसने में ही ज्यादा व्यस्त रहता है ( विज्ञापन ओसामा बिन लादेन का भी मिल जायें तो ये लोग उसे महात्मा बना के छापने में परहेज नहीं करेंगे, आखिर इसी चौथे स्तम्भ में तो समानता की बात होती है ) आखिर सवाल बिना पगार के नौकरी का जो होता है।

भई, अगर आप बिना पगार मांगे मेहनत से काम करेंगे और सबसे ज्यादा विज्ञापन देंगे तो अखबार मालिक आपकी बहुत इज्जत करता है, हो सकता है जिस दिन भूख या दबा के अभाव में आपकी मौत हो जाये, अखबार आपके पुण्यतिथि पर कोई दिवस मना ले (वैसे इसकी संभावना नहीं है, क्योंकि आप उस अखबार के कर्मचारी थोड़े ही थे)। वैसे भी अखबार मालिक यही सोचता है, हमने पत्रकार बना के इसको इज्जत बख्शी और यह ऊपर से कमा खा ही रहा होगा तो तनख्वाह देने की क्या जरूरत है (अब आप इसको खून चूसना नहीं कह सकते हैं)। भई, जब इस तरह अपने अखबार के पास पैसा बचेगा तो वो कोई ना कोई तो दिवस मनायेगा ही। आखिर थोड़े बहुत पैसे खर्च भी तो करने हैं इनकम टैक्स वगैरह वालों को बताने के लिये। अब आप को आता जाता भले ना हो आप संपादक कम सीईओ के बेटे हैं तो अपने बाप के पुस्तैनी धंधे पर आपका हक तो बनता ही है। अब आप छोटे मोटे पत्रकार तो बनेंगे नहीं (यह दूसरी बात है कि आपको पढ़ने या लिखने आता है कि नहीं) बनेंगे तो संपादक ही बनेंगे नहीं तो डाइरेक्टर साहब बनेंगे। अब वैसे भी पत्रकारिता और मिशन शुद्ध रूप से चाटुकारिता और कमीशन बन चुकी है तो आप अपना धंधा चमकाइयेगा या फिर आम लोगों का दर्द उठाकर अपना व्यवसायिक अहित करियेगा ?

अब जुगाड़ है तो आप को भले ही कुछ नहीं आता हो (संस्थान में आपसे ज्यादा विद्वान लोग मौजूद हों, आपसे ज्यादा सीनियर लोग काम कर रहे हों) परन्तु एडीटर या न्यूज एडीटर और मैनेजर तो आप ही बनेंगे, आखिर सवाल जुगाड़ का जो है। तो भाई लोगों, हम और आप जैसे लोगों को यही कहा जायेगा कि फलाने संस्थान ने निकाल दिया तो भड़ास निकाल रहे हैं, वहां नहीं पटी तो बुराई कर रहे हैं। तो ऐसे भाइयों को बता दूं कि मैं भड़ास वगैरह नहीं निकाल रहा हूं, मैं तो सिर्फ जुगाड़ शब्द का गुणगान कर रहा हूं। अगर चाटुकारिता और कमीशन के मेल के साथ जुगाड़ फिट हो जाये तब तो सोने पे सुहागा हो सकता है। अब जुगाड़ होता तो मेरा भी जन्म दिवस 'जुगाड़ दिवस' के रूप में धूमधाम से मनाया जाता। जुगाड़ ना होने के वजह से घर पर सिर्फ पूड़ी, खीर और पनीर आलू की सब्जी खाकर जन्म दिन मना लेते है (भई, देहात गांव के लोग की खुशियां तो इन्हीं पकवानों से मनती है)। अब जुगाड़ ही तो है, जिसे लिखना पढ़ना नहीं आता, वो भी किसी अखबार का ब्यूरो चीफ हो सकता है! वैसे भी आवाज उठाने वालों को कहीं पसंद नहीं किया जाता (अब बीबी की आवाज सुनना तो मजबूरी है), इसलिये इन संस्थानों में आवाज उठाना अघोषित रूप से गैर कानूनी होता है। इसलिये बंधुओं अगर आपको भी अपना जन्म दिन धांसू तरीके से किसी दिवस के रूप में मनवानी हो तो, आवाज उठाने के बजाय, घर से चलते समय मक्खन लेकर चला करें। खुदा ना खास्ते जुगाड़ लग गया तो सांसद या विधायक तो बन ही जायेंगे, मक्खन कुछ ज्यादा लग गया तो फिर आपको सर्वोच्च सम्मान पाने से कोई भी नहीं रोक सकता, खुद आप भी नहीं। इसलिये बंधुओं किसी दिवस पर रोना धोना छोड़कर जुगाड़ में लग जाइये। कल आप भी खबर बेचने के अच्छे बनिया बन सकते हैं।

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

पुलिस, अपराध और हम

हमारे देश के लोग भोले भाले तो हैं पर इतने नासमझ हैं नहीं पता था। देश के किसी भी हिस्से में कोई भी घटना घटी नहीं कि पुलिस पर दोषारोपण करना शुरू कर देते हैं। समझ में नहीं आता आखिर पुलिस कहां कहां मौजूद रहेगी। अगर सड़क कोई घटना होती है, डकैती होती है, चोरी होती है, अपहरण होता है, लूट होती है, बलात्कार होता है या कोई आतंकी घटना होती है, लोग पुलिस को ही कोसने लगते हैं। पुलिस अगर सड़क पर मौजूद रहती है तो घर में चोरी, लूट हो जाती है। अगर पुलिस घर में मौजूद रहे और सड़क में हादसा हो जाये तो लोग कहते हैं पुलिस हमेशा घर पर ही रहती है। अब आप ही बतायें पुलिस कहां मौजूद रहे सड़क पर या घर में। जब आप को यह सुन के ही चक्कर आने लगा तो बताईये पुलिस का हाल क्या होता होगा।

आरोप लगाने वालों का क्या है, वे तो ये भी कहते हैं कि पुलिस तनख्वाह तो लेती है पर काम नहीं करती। अपराध बढ़ता है तो पुलिस को कोसते हैं,पर यह नहीं सोचते कि जब अपराध बढ़ेगा तब ही तो पुलिस काम करेगी, बिना अपराध बढ़े पुलिस कौन सा काम करेगी। इसलिये अपराध बढ़ा है तो समझिये पुलिस काम कर रही है। हमें तो अपराध बढ़ने की स्थिति में खुश होना चाहिए न कि पुलिस को कोसना चाहिए। वैसे भी खाली दिमाग शैतान का घर होता है। पुलिस भी खाली रहेगी तो यहां छापामारी करेगी वहां छापामारी करेगी। अब पुलिस किसी सेठ के गोदाम पर छापामारी करने, किसी धन्ना के बैंक लॉकर को तलाशने या चोरी छिपे काम करने वालों को परेशान करने तो नहीं बैठी नहीं है! भई पुलिस का काम तो अपराध रोकना है,इसलिये अगर अपराध बढ़ेंगे नहीं तो पुलिस रोकेगी किसको ?

कुछ लोग पुलिस घिनौने आरोप लगाने से भी नहीं चूकते हैं और सबसे दुखद बात यह कि आरोप लगाते समय पुलिस के स्टैण्डर्ड का भी ख्याल भी नहीं रखा जाता है। लोग कहते हैं कि पुलिस अपने संरक्षण में हेरोईन, शराब, गांजा, अफीम, चरस, डीजल, पेट्रोल बिकवा रही है। भई, अब इन नासपीटों को कौन समझाये कि पुलिस यह सब नहीं बिकवायेगी तो क्या मूंगफली और चना बिकवायेगी। आखिर स्टैण्डर्ड भी तो कोई चीज होती है। कुछ तो ये भी कहते हैं पुलिस नकली सामानों की बिक्री करवा रही है। भई, तो क्या हमारे देश की पुलिस इतनी अमीर हो गई है कि वो फैक्ट्री खुलवाकर असली सामान बनवा के बिकवायेगी। आखिर पुलिस ये सारे काम तो बिना किसी तनख्वाह के करती है, सरकार तो उसे सिर्फ अपराध रोकने के पैसे देती है, इस तरह के काम करने के तनख्वाह पुलिस कहां मांगती है। वह तो उपर के सारे काम समाजसेवा समझ कर करती है। अब ऐसे में कोई आरोप लगाये तो बुरा तो लगेगा ही!

वैसे भी जो काम सरकार को करनी चाहिए वो काम हमारे देश की पुलिस कर रही है। पुलिस सैकड़ों बेरोजगारों को अपने दम पर रोजगार उपलब्ध करवा रही है। देश के विभिन्न गली, चौराहों, नुक्कड़ों पर ट्रक, बस, ठेला, खोमचा, मिट्टी के तेल को डीजल बनाने वालों, पानी को शराब बनाने वालों, सरकारी सामानों को बाजार में बेचने वालों से राजस्व अर्जन के कार्य में लगाकर, पुलिस सैकड़ों बेरोजगार युवकों को रोजगार उपलब्ध कराया है। इसके लिये वह सरकार से कोई मदद भी नहीं लेती है। किसी चौराहे या पुलिस पिकेट के पास इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देख सकते हैं। अब आप ही बताईये कि पुलिस अपने बल पर वसूली के लिये लगाये गये युवकों के परिवार का पेट पाल रही है, यह कर पाना और किसी के बस की बात है क्या ? इन युवकों को उनका पारिश्रमिक पुलिसकर्मी ईमानदारी से दे देते हैं, यह आश्चर्यजनक किन्तु सत्य है। अब बताइये युवकों को रोजगार देने वाली पुलिस गलत है?

अपने देश को लेकर एक कहावत बहुत प्रचलित है कि यहां अनेकता में एकता है। तो यह कहावत ऐसे ही नहीं बनी है, इस कहावत में पुलिस वालों का बहुत बड़ा योगदान है। आप पूरब से पश्चिम जाइये, उत्तर से दक्षिण जाइये, आपको राज्यों की भाषा में अंतर मिलेगा, लोगों के रहन सहन में अंतर मिलेगा, बात व्यवहार में अंतर मिलेगा, समय काल में अंतर मिलेगा, परन्तु इसके बावजूद भी आपको किसी राज्य में पुलिस के चाल या चरित्र में कोई अंतर नहीं मिलेगा। सभी राज्यों में पुलिस एक से निर्विकार भाव से अपने कार्य में मशगूल रहती है। उन्हें तो बस अपने कर्म पर पूरा विश्वास रहता है। उदाहरण स्वरूप ध्यान दें- सभी राज्य के पुलिस के पास उनका मुखबिर होता है, कारखास होता है (वैसे यह कोई सरकारी पद नहीं है, किन्तु आपको देश के सभी थानों में यह गैरसरकारी और राजस्व अर्जन के इज्जतदार पद पर कोई न कोई मिल ही जायेगा)। इसीलिये कहा जाता है कि अपने देश में सारी अनेकताओं के बाद भी एकता है तो इसके पीछे अपने देश की पुलिस बहुत बड़ी कारण हैं। अगर आप कई बातों पर गहराई से अध्ययन करें तो सभी प्रदेश के पुलिस में समानता होती है। जैसे मुठभेड़ की कहानी- पुलिस को मुखबिर से सूचना मिलती है, पुलिस अपने पेटेंट अड्डे (यह देश में हर पुलिस थाने का अपना खरीदा गया जमीन होता है, आप पायेंगे कि अधिकांश मुठभेड़ इसी जगह पर होते हैं) पर घेरेबंदी करती है, दो बदमाश मोटरसाइकिल से आते हैं, पुलिस हाथ देती है, वो बाइक की रफ्तार तेज कर लेते हैं, पीछे बैठा बदमाश गोली चलाता है, आत्मरक्षा में पुलिस भी गोली चलाती है, पीछे बैठा बदमाश गिर जाता है, दूसरा बदमाश अंधेरे का लाभ उठा कर भाग जाता है। अमूमन इस तरह की कहानी देश के हर मुठभेड़ में होती है, दिन संख्या या वाहन का अतंर हो सकता है। इससे प्रतीत होता है कि देश में अनेकता में एकता वाला मुहावरा पुलिस की ही देन है।

पुलिस तो जनता की सेवा के लिये है। पुलिस का काम है समाज से अपराध को कम करना। पुलिस जब अपराध को कम करती है तो कुछ लोगों की शिकायत होती है कि पुलिस मामलों को दर्ज नहीं करती है। पुलिस अगर लिखापढ़ी और कागजों के माध्यम से अपराध कम करती है तो किसी को शिकायत नहीं होनी चाहिए। होना भी यही चाहिए की आंकड़ों में अपराध कम हो, क्योंकि आंकड़ों में अपराध कम होगा तो जुर्म कम होंगे। अगर आप लूट लिये जाते हैं, आपके दुकान का शटर तोड़ दिया जाता है, घर में चोरी कर ली जाती है, रेप होता है तो इसमें पुलिस का दोष कहां है। दोष तो आपका है जो पैसा लेकर यहां वहां आते जाते हैं, दुकान में ताला लगाकर निश्चिंत हो जाते हैं, घर पर आराम से सोते हैं। पुलिस के पास अपने काम भी तो हैं तो वो अन्य कामों अपना कितना दिमाग खपायेगी। पुलिस ठीक करती है जो आपका मामला दर्ज नहीं करती है ? जब सारे अपराध पुलिस ही रोकेगी तो हम और आप क्या करेंगे?