यादों के चेहरे पर पड़ती झुर्रियों के बीच मन कुछ सोचने बैठा है कि उस 11 दिसम्बर की रात मैं क्या कर रहा था... यूं भूला तो कुछ भी नहीं है, पर जेहन के किसी हिस्से में एक धुंधली पड़ती जा रही तस्वीर खामोशी के साथ उभरती है. वक्त के थपेड़ों और समय की धूल भरी मोटी परतें जमने के बाद भी वो र्दद में डूबी यादें अब कहीं ज्यादा चुभती हैं. नश्तर सी रूह को भीतर तक छील देती है. मैं तो खामोखां एक टूट रहे सपने के साथ ही तो जमुना की धारा को धीरे धीरे उस ट्रेन में बैठकर पार किया था. उस पल सारी उम्मीदें भी तो सरस्वती की तरह आंखों से ओझल हो चुकी थीं, तभी तो गंगा-जमुना के इस संगमनगरी में कभी संगम ना हो सकने के गम को लेकर पहुंचा था.
नई उम्मीद की कोपलें भी तो फूटने से इनकार करने लगी थीं. मेरी खामोश आंखों को दिलीप भी तो नहीं पढ़ पाया था. उसे भी कहां पता था कि आंखों के भीतर गंगा-जमुना के संगम का नहीं बल्कि समुंदर के खारे पानी के सोते बाहर निकले को मचल रहे थे. आंखों और मन के सरगोशियों को मेरे अलावा कहां वो भी समझ पाएं होंगे. उनकी दुनिया तो रोशनी की तरंगों में डूबने-उतराने को तैयार थी. सूरज को निगलने की कोशिश में वो शाम भी तो कितनी बेचैन थी. शायद मुझसे भी कहीं ज्यादा. आखिर रात तो मेरे भी हिस्से में आने को ही मचल रहा था. दिलीप के उस किराए के कमरे में मेरे और उसके अलावा कोई और भी तो था. मेरी तनहाइयों ने कहां मुझे अकेला छोड़ा था.
बाहर की सर्द रात ने तो खून भी जमा दिया था, लेकिन मैं अंदर पसीने से भीगा हुआ, करवटें बदलता रहा, पर नींद के आ जाने का इंतजार कहां खत्म हुआ था. नींद से ही नाकामी का रिश्ता कहां था, नाकाम तो जिंदगी से भी हुआ था उस रात. यह तो बस अधूरे सफर का रिश्ता था, जो रात के अंधेरों में और गहरा होता चला गया था. शायद तुमसे आखिरी बार भी नहीं मिल पाने दर्द भी इस रात में जुस्तजू था. आखों के कोर तो तकिए को भीगो दिया था, पर दिल कहां खुल कर आंखों के रास्ते अपनी बात कह पा रहा था. घुट ही तो रहा था उस रात एक टूटा हुआ सपना. पर सुबह उस ध्वस्त हो चुके सपनों के बाद भी मैंने वो दौड़ तो जीत ही ली थी, वो गोला फेंक ही तो लिया था उतनी दूर, पर शायद जो सितारे किस्मत से जा चुके थे उन्हें कहां मेरे कंधों पर टंकना था. शायद किस्मत ने स्टार से नाता ही तोड़ दिया था.
सिर्फ जिंदगी की परीक्षा में ही तो फेल नहीं हुआ था, स्टार पाने की परीक्षा में भी तो नम्बर नहीं मिले थे. तुम्हें गए दशक से ज्यादा का वक्त बीत चुका है. इस बीच हजारों उदास रातें, सुबकते दिन भी तो यूं ही बीते हैं. अनगिनत घंटे में अनगिनत सपने भी तो टूट कर बिखरे हैं. तुम तो ना जाने इस सालों कितना आगे जा चुके होगे.. पर मैं कहां जा पाया.. बस आज भी वहीं हूं. हां इस सालों में सांवला रंग थोड़ा और गहरा हो गया है...बिल्कुल काली रातों की तरह. इन गुजरे सालों में बहुत कुछ भूल चुका है, बस तुम ही नहीं भूल पाए. हर शै के साथ, जब भी जिंदगी के सफहे उलटता-पलटता रहा तुम्हारी यादों की पुरवाई वैसे ही ताजा हवा का झोंका बनकर दिल को राहत दे जाता रहा. एक-एक लम्हा आंखों के सामने से यूं गुजरता, जैसे किताब का पन्ना. हां, कल की ही तो बात लगती है, जब मेरे सवालों का तुमने जवाब नहीं दिया था. शायद तुम जवाब देना भी नहीं चाहते थे. मेरे जैसे मेरे सवाल भी तो तुम्हें कहां पसंद थे कभी. अब शायद और नापसंद हो गए होंगे.
वो मैं ही तो था, जो बेमकसद के ख्यालों में मसरुफ रहा करता था. दिसम्बर की उस घटाटोप रात के हादसे के बाद तो मेरी नीम बेहोशी और ज्यादा बढ़ गई थी. मेरे पास कोई जादुई चिराग भी तो नहीं था. सच कहूं तो मेरे सवाल छलावे नहीं थे, वो तो बस सवाल थे जिंदगी के, सवाल थे मेरे पसंदगी के. तुम तो नहीं समझ सके थे, पर शायद उस बेजुबान को मेरी बात समझ में आ गई थी, जो मेरे हाथों से खेल लिया करता था... शायद उसे पता था कि मेरा प्यार कोई नुमाइश नहीं है. इस दशक में बदले मौसम में तुम भी तो कितना बदल चुके होओगे. मेरी बातें भी तो अब तुम्हें याद नहीं होंगी. शायद मेरी बातें तुम्हारे लिए बेससब होंगी. तुम्हारी दुनिया तो पता नहीं कितना आगे.. कितने पड़ावों को पार कर चुकी होगी. मैं इस रेत के महल बनाते हुए ना जाने क्या सोच रहा हूं.. वहीं बैठा बैठा, जहां तुम दशकों पहले छोड़ गए थे. छोड़ भी कहां गए थे.. तुमने तो अपनाया ही नहीं था. हां शायद मेरे कंधों पर सितारे जो नहीं थे. हां.. किस्मत में भी तो नहीं थे.