बुधवार, 15 सितंबर 2010

मैं भी भड़ासी बन गया

आज मैं भी भड़ास का सदस्‍य बन गया. वर्षों पुरानी इच्‍छा आज पूरी हो गई.

अनिल

सोमवार, 23 अगस्त 2010

भ्रष्‍टाचार को मिले कानूनी मान्‍यता !

मैं दुखी हूं. मेरा पड़ोसी भी दुखी है. दुखी इसलिए हैं कि खेल हो रहा है. मामला तो एक है पर हमारे दुख के कारण अलग अलग हैं. कॉमनवेल्‍थ खेल को लेकर जिस तरह का नोचा नोची शुरू हुई है, उससे देश के लोग भी बहुत दुखी हैं. जाहिर सी बात है, देश में बड़ा खेल हो रहा है तो ऐसा खेल होना ही था. इतने बड़े खेल की आशंका किसी को नहीं थी, जितना बड़ा इस खेल को बना दिया गया है. वैसे भी इस तरह के बड़े आयोजन खेल करने के लिए ही किए जाते हैं. टाइम से सारी तैयारियां हो जाती तो फिर खेल का मतलब ही क्‍या? अतिरिक्‍त टाइम में ही तो खेल में असली रोमांच आता है. देश में खेलों के साथ खेल काफी पहले से होता आ रहा है, तब कभी भी हमने भौं-भौं नहीं की. अब कुछ 'अरबों' का 'खेल' हो गया तो काफी लोग खेलने और काटने की कोशिश में लग गए हैं.

अब अपने सुरेश कलमाड़ी और उनकी टीम ने कॉमन लोगों के वेल्‍थ के साथ थोड़ा सा खेल क्‍या कर दिया, सबलोग पूरी टीम को 'सुरसा' की तरह मुंह खोलकर 'काला पाणी' की सजा देने की थुथुनजोरी करने लगे हैं. आखिर क्‍या रखा है इसमें, अरे जांच होने से रही, अगर जांच हुई भी तो रिपोर्ट आने से पहले बेचारे कितने भगवान को प्‍यारे हो चुके होंगे. अपने देश में घोटाला कोई हल्‍ला करने जैसी बात नहीं है. कितने घोटाले हुए, क्‍या बिगाड़ लिया किसी ने. इसलिए शांति के साथ दूसरे खेलों के बारे में सुनने व जानने की तैयारी करनी चाहिए.
 
वैसे चर्चा कुछ दुखी लोगों की हो रही थी. कुछ लोगों के दुख का कारण हैं कि इस खेल के खेल में उन्‍हें कोई फायदा नहीं हुआ. जबकि कई ऐसे लोग हैं जो इसलिए दुखी हैं कि इस खेल के खेल में उनके दुश्‍मनों का खेल बढि़या हो गया. कुछ इसलिए परेशान हैं कि उनका भी खेल हो जाता तो कॉमन लोगों का वेल्‍थ उनकी हेल्‍थ सुधार देता. एक फीसदी ऐसे लोग हैं जो खेल का खेल करने वाले विभाग में अधिकारी नहीं है, वे अपने किस्‍मत को कोस रहे हैं, क्‍यों नहीं मैं एमसीडी, सीपीडब्‍ल्‍यूडी, पीडब्‍ल्‍यूडी, एनडीएमसी, आयोजन समिति या ऐसे ही किसी विभाग का अधिकारी या कर्मचारी बन पाया. एक ही फीसदी ऐसे लोग हैं, जो बेचारे माइक-आईडी और कलम-कॉपी लेकर घूम रहे हैं, तिहाई इस उम्‍मीद में कि इस खेल से हमारे खेलने खाने के दिन बहुरे, शेष इसलिए कि उनका नाम सुधरे. कुछ फीसदी लोग इसलिए परेशान हैं कि जहां देखों वहीं खेल के बारे में तमाम तरह के खेल खेले जा रहे हैं. अठारह फीसदी इसलिए परेशान हैं कि झूठ में इतना हल्‍ला मचाया जा रहा है और जांच की बात की जा रही है, जबकि जांच के आंच से ना तो आज और ना ही कल कुछ पकना है. बीरबल की खिचड़ी शायद पहले पक जाए. और लगभग सत्‍तर प्रतिशत बेचारे खाने कमाने और महंगाई से लड़ने में परेशान हैं तो फिर आप कोई खेल करते रहो क्‍या फर्क पड़ता है!

कॉमनवेल्‍थ खेल के साथ हुआ खेल देखने के बाद मेरे मन में एक विचार आया है. क्‍यों न हम देश में भ्रष्‍टाचार को कानूनी मान्‍यता देने के लिए लड़ाई लड़ें. हम तो कहते हैं कि घोटालों को कानूनी मान्‍यता मिलनी चाहिए. अब तक देश ने इस विधा में जितनी काबिलेतारीफ प्रगति की है, उससे घोटालों का हक बनता है कि उन्‍हें कानूनी बनाया जाय और घोटालेबाजों का सम्‍मान किया जाय. घोटालेबाजों के लिए तमाम पुरस्‍कार रखें जाए. एक बात और कि इन पुरस्‍कारों में सेटिंग गेटिंग नहीं होनी चाहिए. जैसा कि तमाम भूषण और श्री जैसे पुरस्‍कारों के साथ होता रहा है! भ्रष्‍टाचार और घोटालों में भी अगड़ा, पिछड़ा, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का कोटा बनाया जाना चाहिए. इसमें अल्‍पसंख्‍यक और बहुसंख्‍यक श्रेणी भी होनी चाहिए. नेता लोगों को अल्‍पसंख्‍यक श्रेणी में और आम जनता को बहुसंख्‍यक श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिए. अधिकारियों को पिछड़ा श्रेणी, सरकारी कर्मचारियों को अनुसूचित श्रेणी में रिजर्वेशन दिया जाना चाहिए. अगड़ा श्रेणी आम जनता के लिए सुरक्षित किया जाना चाहिए. सीबीआई जैसी संस्‍था को खतम करके ऐसी जांच एजेंसी का गठन किया जाना चाहिए जो बड़े से बड़े ईमानदारों को पकड़ कर सजा दिलवाए. सीबीआई भले बड़े बेईमानों को सजा दिला पाने में अक्षम रही हो पर उम्‍मीद है कि नई संस्‍था अपना कार्य कुशलता से कर सकेगी.
 
किसी ने चारा खाया, किसी ने अलकतरा खाया, किसी ने पूरी सड़क ही खा ली, कोई स्‍टाम्‍प डकार गया, किसी ने शेयर खाए, कोई पेड न्‍यूज खा रहा है, कोई ताबूत खा गया, कोई बाढ़ राहत खा गया, कोई जमीन खा गया, किसी ने सरकार संभालने-गिराने के लिए धन खा लिया, कोई टेलीफोन खाया, किसी ने शराब खाया, कोई यमुना एक्‍सप्रेस वे खा गया, तो कोई आय से अधिक धन खा गया, कमीशन तो ईमानदारी से लोग खाते ही रहते हैं. इतना खाने के बाद भी कहां कोई अनपच हुआ...? सब मिल बांटकर पचा लिया गया. आम जनता तो बेचारी खिलाने में ही परेशान रहती है, क्‍लर्क को खिलाया, अफसर को खिलाया, पुलिस को खिलाया, नेता को खिलाया, दलाल को खिलाया. इससे जाहिर होता है कि खाना और खिलाना अलग अलग समूह है. इसलिए दोनों को बराबरी का दर्जा देने के लिए एक बराबर कानून बनाया जाय. सीबीआई बेचारी आज तक खाने वाले समूह को नहीं पकड़ पाई, जब भी पकड़ा खिलाने वाले समूह को ही पकड़ा. इसलिए हम सीबीआई की जगह ऐसी संस्‍था बनवाने की बात कर रहे हैं, जो सिर्फ ईमानदार लोगों के खिलाफ जांच करे. ऐसी संस्‍था के पास सफलता की गारंटी होगी.
 
भ्रष्‍टाचार बढ़ाने के लिए सख्‍त से सख्‍त कानून बनाया जाए. हालांकि इसके लिए ज्‍यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी, क्‍योंकि इसके जैसी तरक्‍की देश में किसी और की नहीं हुई है. इस बारे में मेरे कुछ स‌ुझाव हैं... ईमानदारी को गैर जमानती धाराओं में शामिल किया जाए. जो भी व्‍यक्ति ईमानदारी में लिप्‍त पाया जाए, उसे बिना वारंट गिरफ्तार करने का अधिकार होम गार्ड तक को दिया जाए. स्विस बैंक में धन जमा करने को कानूनी बनाया जाए. जिनका स्विस बैंक में पैसा जमा हो उन्‍हें सरकार की तरफ से तमाम सुविधाएं प्रदान की जाए. जो भ्रष्‍टाचार की श्रेणी में पिछड़ा या दलित हों उन्‍हें नियमानुसार आरक्षण दिया जाए. अल्‍पसंख्‍यक भ्रष्‍टाचारियों के लिए विशेष सुविधाएं प्रदान की जाए. इस तरह के प्रावधानों को मान्‍य किया गया तो मुझे पूरी उम्‍मीद है कि देश में गरीबी भी नहीं रहेगी. भ्रष्‍टाचार की राष्‍ट्रीय योजना लागू होने के बाद कोई गरीब नहीं बचेगा. जब वो बचेगा ही नहीं तो फिर गरीबी कहां रहेगी?
 
रही बात खेल की तो, पहले भी हमने काफी खेल देखे हैं. हॉकी में खेल देखा, बैडमिंटन में खेल देखा, क्रिकेट में भी देखा, और बहुत से खेलों में भी खेल देखा. मेरा यह भी स‌ुझाव है कि खेल संस्‍थाओं के शीर्ष पदों को नेताओं की बपौती घोषित कर दी जानी चाहिए. जिस तरह से एक-एक संस्‍था पर कई वर्षों से नेता जी लोग काबिज हैं उसे देखते हुए उनके मरने के बाद (क्‍योंकि जीते जी तो वो हटेंगे नहीं) उनके पुत्रों या पुत्रियों को ही उस खेल संस्‍था का पदाधिकारी बनाया जाए. हम पहले भी मानते रहे हैं कि खेल में पदक नहीं बल्कि भाग लेना सबसे महत्‍वपूर्ण होता है. तो हमारा मानना है कि सभी संगठनों को नेताओं के हवाले करके खिलाड़ियों और देशवासियों को भाग लेना चाहिए. खिलाड़ी खेलों का भला नहीं कर सकते. उन्‍हें कहां वह खेल आता है जो हमारे नेताओं को खेलना आता है? राजनीति की तरह खेल संस्‍थाओं के वरिष्‍ठ पदों के लिए भी आयु सीमा का कोई प्रावधान नहीं होना चाहिए. कब्र में पांव लटकने तक नेताओं को शीर्ष पद पर रहने का अधिकार प्रदान किया जाना चाहिए. आखिर खेल है तो खेल होना भी तो चाहिए. जय खेल जय खिलाड़ी !!!

मंगलवार, 4 मई 2010

जनसरोकार की ख़बरों की तरफ मुड़ेगी ख़बरिया चैनलों की राह?

क्या सही दिशा में जा रही है ख़बरिया चैनलों की राह? क्या आम सरोकार की ख़बरें चैनलों से गायब हो रही हैं? ऐसे कई सवाल हैं जो आम लोगों से लेकर पत्रकार, बुद्विजीवियों के मन में अक्सर उठते रहते हैं। ऐसा इसलिये है कि ख़बरिया चैनल अब आम लोगों से जुड़ी ख़बरों को अपने रन में जगह देने के बजाय भूत प्रेत और धरती पलटने जैसी ख़बरों को ज्यादा प्राथमिकता दे रहे हैं। अगर महानगर में कोई फैशन शो चल रहा है तो उसी दौरान देश के किसी गांव में किसान की आत्महत्या की ख़बर इनके लिये कोई मायने नहीं रखती हैं। उनके लिये कर्ज़ में डूबे किसान की आत्महत्या कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, लेकिन करीना ने टैटू बनवा लिया है तो बहुत बड़ी ख़बर बन जाती है। पिछिले कुछ दिनों की ख़बरों पर ही नजर डालें तो ख़बरिया चैनल जनसरोकार से जुड़े मामलों को छोड़कर लोगों के व्यक्तिगत जिंदगी में जरूरत से ज्यादा ताक झांक करते नज़र आते हैं। जिस तरह से सानिया मिर्जा के निकाह के प्रकरण को चैनलों ने तूल दिया अपने रिपोर्टरों को घंटों सानिया के घर के सामने खड़ा रहने को मजबूर किया, वो साफ दिखाता है कि टीवी पत्रकारिता कि दशा और दिशा किस ओर है। इसी दौरान अरबों रुपये के लागत से तैयार पीएसएलवी थ्री के असफल होने की ख़बर को कोई महत्व नहीं दिया गया। इस बहुउद्देशीय प्रोजेक्ट से पूरे देश को क्या फायदा होने वाला था, इसकी असफलता से देश को कितना नुकसान हुआ? कितने लोगों की मेहनत इस प्रोजेक्ट को बनाने में लगी थी, उनको इसकी असफलता से कितना दुख पहुंचा? इस तरह की ख़बर किसी भी ख़बरिया चैनल पर नहीं दिखाई पड़ी। जबकि सानिया मिर्जा की शोएब के साथ निकाह करने के बयान से लेकर उसकी सगाई तक की ख़बर हेडलाइंस में दिखी। और तो और कई चैनलों पर तो सानिया की मेहंदी तक ब्रेकिंग न्यूज़ के तौर पर चलाये गये।


अख़बारों पर जनसरोकार की ख़बरें ना लिखने का आरोप लगाने वाले ख़बरिया चैनल अब खुद उस राह की ओर मुड़ गये हैं। जबकि इधर, तमाम अख़बारों के तहसील स्तर पर कार्यालय खुलने के बाद वे पहले से ज्यादा आम सरोकार की ख़बरों को अपने पन्नों पर जगह दे रहे हैं। उनके पन्नों पर अब गली, नाली, खंडंजा से लेकर नहर, पानी, किसान और आम आदमी को जगह मिल रही है। जबकि ख़बरिया चैनलों से आम आदमी लगातार गायब होता जा रहा है। कुकुरमुत्तों की तरह उग आये छोटे छोटे ख़बरिया चैनलों ने स्थिति और ज्यादा ख़राब कर रखा है। इन चैनलों में ना तो वर्किंग माहौल दिखता है, ना तो इनके कांसेप्ट में ही कुछ नयापन की झलक मिलती है। अख़बार के दफ्तरों में अपेक्षाकृत स्थितियां ज्यादा बेहतर हैं। जबकि ख़बरिया चैनलों में छोटे स्तर से लेकर बड़े स्तर तक के लोग ख़बरों पर दिमाग लगाने के बजाय एक दूसरे को निपटाने में ही अपनी सारी ऊर्जा व्यय करते हैं। इस स्थिति में ख़बरों को लेकर जो चर्चा होनी चाहिए नहीं हो पाती हैं। टीआरपी के फंडा ने इस स्थिति को और अधिक बदहाल कर रखा है। व्यूअर रीडर का ये डब्बा सिर्फ कुछ शहरों के दर्शकों की बदौलत चैनलों की टीआरपी तय करता है। जबकि उभरते भारत के असंख्य कस्बाई और ग्रामीण दर्शक इस डिब्बे की जद से बाहर रहते हैं, यानी तार्किक और वैज्ञानिक ना होते हुए भी टीआरपी का यह डब्बा चैनलों का बाज़ार तय करता है। और इस पर विश्वास करते हैं खुद को बुद्घिजीवी कहने वाले पत्रकार और मैनेजमेंट के पढ़े लिखे लोग।

ख़बरों के बदलते रंग रूप और जनसरोकार से दूर होते ख़बरिया चैनलों के शीर्ष पर बैठे लोग इन बातों को लेकर अक्सर विधवा विलाप करते रहते हैं। अख़बारों के संपादकीय पेज पर बड़े बड़े कॉलम में सुधारों और जन सरोकारों के साथ जुड़ने की बात दुहराते हैं। लेकिन जब इनको लागू करने की बात आती है तो सारा का सारा विधवा विलाप छूमंतर हो जाता है। फिर वे अपने पुराने ढर्रे पर लौट कर भूत प्रेत के साथ मिलकर दुनिया उलटने पलटने लगते हैं। किसी को रावण का विमान मिलता है तो कोई महलों में आत्मा खोजने-ढूंढने में लग जाता है। ख़बरिया चैनलों को आम आदमी की समस्या, किसानों की समस्या, छोटी बड़ी खोज या छोटे स्तर पर लोगों की जीवन को सुलभ बनाने वाले आविष्कार नज़र नहीं आते हैं। लेकिन शाह रुख का कुत्ता बीमार पड़ गया तो चैनलों के लिये यह बड़ी ख़बर बन जाती है। महंगाई से आम आदमी दाना-पानी के लिये परेशान है, इसकी ख़बरे कम दिखती हैं, फैशन शो में कपड़े कितने महंगे हैं यह ख़बर लीड बन जाती है। ख़बरिया चैनल के शीर्षस्थ लोग इसमें बदलाव की बात तो करते हैं परन्तु उनकी चाहत होती है कि ये बदलाव लाने वाला भगत सिंह पड़ोस के चैनल में पैदा हो। ख़बरों के बिगड़ने के कारण तो कई हैं, जिनपर चर्चा की जा सकती है। परन्तु यहां भेड़ चाल में चलने की परम्परा पुरानी होती जा रही है। जैसे मनोरंजन चैनल सास-बहू के साजिशों से उबरे तो अब कस्बाई मानसिकता को पकड़ कर आगे बढ़ रहे हैं। यानी बदलाव की बयार के बाद भी भेड़चाल। कुछ ऐसी ही स्थिति ख़बरिया चैनलों की है। किसी एक चैनल पर कोई कार्यक्रम हिट हुआ नहीं कि उस ढर्रे पर दर्जनों चैनल चलने लगते हैं। इसके अलावा ख़बरिया चैनलों की खास लोगों की निजी जिंदगी में ताक झांक भी ज्यादा बढ़ गई है। कई ख़बरिया चैनल कुछ मामलों पर तो जज बनकर खुद ही फैसला सुनाने लग जाते हैं। ऐसी लगातार बढ़ रही प्रवृत्ति ने आम लोगों के मन में ना सिर्फ ख़बरिया चैनलों के प्रति विश्वास कम किया है बल्कि इन ख़बरों को देखकर लोगों का मन भी खट्ठा हो रहा है।

क्या अब ख़बरिया चैनल अपना चोला बदलने की पहल करेंगे? क्या अब ख़बरिया चैनलों में जन सरोकार की ख़बरे देखने को मिलेंगी? क्या पत्रकारिता की गर्विली परम्परा का सुनहरा दौर वापस आयेगा? ऐसे कई सवालों का जवाब मिल पाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि जनससरोकार से जुड़ने के लिये ना सिर्फ ख़बरों को सूंघने-समझने और पहचानने की क्षमता होनी चाहिए वरन टीआरपी जैसे बाजारू दबाव को झेलने की ताकत भी। लेकिन ज्यादातर चैनलों में जो सबसे बड़ी दिक्कत है वो है पत्रकारों की जमात। ख़बरिया चैनल ज्यादातर सुंदर चेहरों को मौका प्रदान करते हैं, प्रतिभा बाद की मानक होती है। भागती दुनिया में ख़बरिया चैनलों के भीतर पकने वाली खिचड़ी आज किसी से छिपी नहीं है। यहां पसरी गंदगी अंदर का स्वाद तो ख़राब करती है बाहर के लोगों का मन भी कसैला करती है। प्रतिभावान लोगों के लिये चैनलों में जगह कम है, ज्यादातर काम इंटर्न या फिर ट्रेनी करते हैं, इन्हें कम पैसा जो देना होता है। ऐसे में प्रतिभावन लोग की जगह रंगीन चेहरे व कम अनुभवी पत्रकारों के साथ टीआरपी का डब्बा और बाजार का दबाव होगा तो बदलाव कैसे होगा समझना मुश्किल नही है। यानी ख़बरों की ये दुनिया ना तो ठीक से कारपोरेट कल्चर को आत्मसात कर सकी है और ना ही पूर्ण रुप से पत्रकारिता को। ऐसे में क्या हम ख़बरिया चैनलों से उम्मीद कर सकते हैं कि हमें निकट भविष्य में जनसरोकारों की ख़बर देखने को मिल सकती है! है इसका जवाब किसी ख़बरिया पुरोधा के पास?