रविवार, 2 जून 2013
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हमारी जिंदगी शायद एक पगडंडी की तरह है...जिसमें मुश्किलें हैं, अपनापन है...दर्द और चुभन है तो कहीं प्यार और समझ है...पगडंडी भारत के गांव यानी भारत के आम आदमी को समर्पित है....जिन्हें उजाले में घर देखना बहुत कम नसीब हो पाता है...क्योंकि मुंह अंधेरे लोग परिवार की जरूरत और पेट की खातिर निकल जाते हैं.... तो देर शाम होती है...थकी हारी वापसी...पर नींद तो चैन की आती है.... इन सब के बीच भी एक बदलाव की उम्मीद.....शायद!!!
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