साठ-साला आजादी की धूप में भी
कुम्हलाया हुआ-सा गांव
उम्मीद की चौखट पर बैठा
बाट निहार रहा है
अपने उन बेटों का
जो कभी एक अनमनी-सी दोपहरी
"भैया एक्सप्रेस" में बैठकर चले गए परदेस
भूल गए कच्ची दीवारों और फूस की छतवाला
एक घर भी है कहीं उनका
जहां मां गोबर से लीपकर आंगन
जलाती है रोज तुलसी चौके पर दीया
और करती है बेटों के लिए मंगलकामना
खि़ड़की से लगी घूंघट में छिपी दो आंखें
रोज बरसती हैं भादो के मेघ की तरह
और ताकती है बाट पपीहा की तरह
उम्मीद की चौखट पर बैठा गांव
प्रतीक्षा कर रहा अपने उन बेटों का भी
जो अभी गांव की गलियों-चौबारों में
घूमता-टहलता छेड़ता रहता है कोई न कोई धुन
गांव चाहता है कि ये बच्चे
जल्द से जल्द हों काम लायक
और दुनिया के अंधेरों के बीच
सितारे बनकर चमकें
वक्त की डोर को थाम लें अपनी मुट्ठियों में
और बरसों से बंद खिड़कियों को खोलें
उम्मीद के चौखट पर बैठा गांव
निहार रहा है बाट उस अजन्मे शिशु का भी
जिसे लेना है जन्म
और मिटाना है जग का अंधेरा
ताकि फिर कोई न कहे
"गहन है यह अंधकार"
मैं गांव का अभागा बेटा
जो न गांव लौट सकता है
और न गांव को बिसर सकता
सोचता हूं
कब पूरे होंगे गांव के सपने
कुम्हलाया हुआ-सा गांव
उम्मीद की चौखट पर बैठा
बाट निहार रहा है
अपने उन बेटों का
जो कभी एक अनमनी-सी दोपहरी
"भैया एक्सप्रेस" में बैठकर चले गए परदेस
भूल गए कच्ची दीवारों और फूस की छतवाला
एक घर भी है कहीं उनका
जहां मां गोबर से लीपकर आंगन
जलाती है रोज तुलसी चौके पर दीया
और करती है बेटों के लिए मंगलकामना
खि़ड़की से लगी घूंघट में छिपी दो आंखें
रोज बरसती हैं भादो के मेघ की तरह
और ताकती है बाट पपीहा की तरह
उम्मीद की चौखट पर बैठा गांव
प्रतीक्षा कर रहा अपने उन बेटों का भी
जो अभी गांव की गलियों-चौबारों में
घूमता-टहलता छेड़ता रहता है कोई न कोई धुन
गांव चाहता है कि ये बच्चे
जल्द से जल्द हों काम लायक
और दुनिया के अंधेरों के बीच
सितारे बनकर चमकें
वक्त की डोर को थाम लें अपनी मुट्ठियों में
और बरसों से बंद खिड़कियों को खोलें
उम्मीद के चौखट पर बैठा गांव
निहार रहा है बाट उस अजन्मे शिशु का भी
जिसे लेना है जन्म
और मिटाना है जग का अंधेरा
ताकि फिर कोई न कहे
"गहन है यह अंधकार"
मैं गांव का अभागा बेटा
जो न गांव लौट सकता है
और न गांव को बिसर सकता
सोचता हूं
कब पूरे होंगे गांव के सपने
1 टिप्पणी:
मेरी तरफ़ ठंडी निगाहों से मत देखो
ठंड से वृक्ष के पत्तों की तरह आदमी भी टूटता है।
महानगर की चिल्ल-पों और शोर भरी जिंदगीं में मन को किसी राजमार्ग की नहीं शायद इसी पगडंडी की तलाश है। जहां हो दम भर सांस लेने को ताजा हवा और भर पेट सतुआ। जी करता है गांव की अपनी उस पतली पगडंडी पर निकलूं सुबह-सबेरे और पूछता चलूं रामू काका और भिख्खू महतो का कुशल-क्षेम। देखूं तिनगछिया का वो अपना प्राइमरी स्कूल जहां टांग कर पहुंचाने में अम्मा को कम दुश्वारियां नहीं उठानी पड़ती थी। कभी-कभी सोचता हूं (कभी-कभी ही सोच पाता हूं)कि बीयर बार (सोंचने का मौक़ा भी तो शायद यहीं मिल पाता है)से कहीं अच्छी वो गांव की तड़बन्नी थी जहां सकून से बैठ कर पेड़ की छांव में हम अपने हमउम्रों के साथ बैठ कर गांव की पॉलिटिक्स डील किया करते थे। कभी बड़े चाचा ने देख लिया तो फिर शामत आनी तय। कसमें और फिर उनका टूटना। जल्द ही। आगे की कहानी फिर कभी...
गौतम मयंक
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