क्या सही दिशा में जा रही है ख़बरिया चैनलों की राह? क्या आम सरोकार की ख़बरें चैनलों से गायब हो रही हैं? ऐसे कई सवाल हैं जो आम लोगों से लेकर पत्रकार, बुद्विजीवियों के मन में अक्सर उठते रहते हैं। ऐसा इसलिये है कि ख़बरिया चैनल अब आम लोगों से जुड़ी ख़बरों को अपने रन में जगह देने के बजाय भूत प्रेत और धरती पलटने जैसी ख़बरों को ज्यादा प्राथमिकता दे रहे हैं। अगर महानगर में कोई फैशन शो चल रहा है तो उसी दौरान देश के किसी गांव में किसान की आत्महत्या की ख़बर इनके लिये कोई मायने नहीं रखती हैं। उनके लिये कर्ज़ में डूबे किसान की आत्महत्या कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, लेकिन करीना ने टैटू बनवा लिया है तो बहुत बड़ी ख़बर बन जाती है। पिछिले कुछ दिनों की ख़बरों पर ही नजर डालें तो ख़बरिया चैनल जनसरोकार से जुड़े मामलों को छोड़कर लोगों के व्यक्तिगत जिंदगी में जरूरत से ज्यादा ताक झांक करते नज़र आते हैं। जिस तरह से सानिया मिर्जा के निकाह के प्रकरण को चैनलों ने तूल दिया अपने रिपोर्टरों को घंटों सानिया के घर के सामने खड़ा रहने को मजबूर किया, वो साफ दिखाता है कि टीवी पत्रकारिता कि दशा और दिशा किस ओर है। इसी दौरान अरबों रुपये के लागत से तैयार पीएसएलवी थ्री के असफल होने की ख़बर को कोई महत्व नहीं दिया गया। इस बहुउद्देशीय प्रोजेक्ट से पूरे देश को क्या फायदा होने वाला था, इसकी असफलता से देश को कितना नुकसान हुआ? कितने लोगों की मेहनत इस प्रोजेक्ट को बनाने में लगी थी, उनको इसकी असफलता से कितना दुख पहुंचा? इस तरह की ख़बर किसी भी ख़बरिया चैनल पर नहीं दिखाई पड़ी। जबकि सानिया मिर्जा की शोएब के साथ निकाह करने के बयान से लेकर उसकी सगाई तक की ख़बर हेडलाइंस में दिखी। और तो और कई चैनलों पर तो सानिया की मेहंदी तक ब्रेकिंग न्यूज़ के तौर पर चलाये गये।
अख़बारों पर जनसरोकार की ख़बरें ना लिखने का आरोप लगाने वाले ख़बरिया चैनल अब खुद उस राह की ओर मुड़ गये हैं। जबकि इधर, तमाम अख़बारों के तहसील स्तर पर कार्यालय खुलने के बाद वे पहले से ज्यादा आम सरोकार की ख़बरों को अपने पन्नों पर जगह दे रहे हैं। उनके पन्नों पर अब गली, नाली, खंडंजा से लेकर नहर, पानी, किसान और आम आदमी को जगह मिल रही है। जबकि ख़बरिया चैनलों से आम आदमी लगातार गायब होता जा रहा है। कुकुरमुत्तों की तरह उग आये छोटे छोटे ख़बरिया चैनलों ने स्थिति और ज्यादा ख़राब कर रखा है। इन चैनलों में ना तो वर्किंग माहौल दिखता है, ना तो इनके कांसेप्ट में ही कुछ नयापन की झलक मिलती है। अख़बार के दफ्तरों में अपेक्षाकृत स्थितियां ज्यादा बेहतर हैं। जबकि ख़बरिया चैनलों में छोटे स्तर से लेकर बड़े स्तर तक के लोग ख़बरों पर दिमाग लगाने के बजाय एक दूसरे को निपटाने में ही अपनी सारी ऊर्जा व्यय करते हैं। इस स्थिति में ख़बरों को लेकर जो चर्चा होनी चाहिए नहीं हो पाती हैं। टीआरपी के फंडा ने इस स्थिति को और अधिक बदहाल कर रखा है। व्यूअर रीडर का ये डब्बा सिर्फ कुछ शहरों के दर्शकों की बदौलत चैनलों की टीआरपी तय करता है। जबकि उभरते भारत के असंख्य कस्बाई और ग्रामीण दर्शक इस डिब्बे की जद से बाहर रहते हैं, यानी तार्किक और वैज्ञानिक ना होते हुए भी टीआरपी का यह डब्बा चैनलों का बाज़ार तय करता है। और इस पर विश्वास करते हैं खुद को बुद्घिजीवी कहने वाले पत्रकार और मैनेजमेंट के पढ़े लिखे लोग।
ख़बरों के बदलते रंग रूप और जनसरोकार से दूर होते ख़बरिया चैनलों के शीर्ष पर बैठे लोग इन बातों को लेकर अक्सर विधवा विलाप करते रहते हैं। अख़बारों के संपादकीय पेज पर बड़े बड़े कॉलम में सुधारों और जन सरोकारों के साथ जुड़ने की बात दुहराते हैं। लेकिन जब इनको लागू करने की बात आती है तो सारा का सारा विधवा विलाप छूमंतर हो जाता है। फिर वे अपने पुराने ढर्रे पर लौट कर भूत प्रेत के साथ मिलकर दुनिया उलटने पलटने लगते हैं। किसी को रावण का विमान मिलता है तो कोई महलों में आत्मा खोजने-ढूंढने में लग जाता है। ख़बरिया चैनलों को आम आदमी की समस्या, किसानों की समस्या, छोटी बड़ी खोज या छोटे स्तर पर लोगों की जीवन को सुलभ बनाने वाले आविष्कार नज़र नहीं आते हैं। लेकिन शाह रुख का कुत्ता बीमार पड़ गया तो चैनलों के लिये यह बड़ी ख़बर बन जाती है। महंगाई से आम आदमी दाना-पानी के लिये परेशान है, इसकी ख़बरे कम दिखती हैं, फैशन शो में कपड़े कितने महंगे हैं यह ख़बर लीड बन जाती है। ख़बरिया चैनल के शीर्षस्थ लोग इसमें बदलाव की बात तो करते हैं परन्तु उनकी चाहत होती है कि ये बदलाव लाने वाला भगत सिंह पड़ोस के चैनल में पैदा हो। ख़बरों के बिगड़ने के कारण तो कई हैं, जिनपर चर्चा की जा सकती है। परन्तु यहां भेड़ चाल में चलने की परम्परा पुरानी होती जा रही है। जैसे मनोरंजन चैनल सास-बहू के साजिशों से उबरे तो अब कस्बाई मानसिकता को पकड़ कर आगे बढ़ रहे हैं। यानी बदलाव की बयार के बाद भी भेड़चाल। कुछ ऐसी ही स्थिति ख़बरिया चैनलों की है। किसी एक चैनल पर कोई कार्यक्रम हिट हुआ नहीं कि उस ढर्रे पर दर्जनों चैनल चलने लगते हैं। इसके अलावा ख़बरिया चैनलों की खास लोगों की निजी जिंदगी में ताक झांक भी ज्यादा बढ़ गई है। कई ख़बरिया चैनल कुछ मामलों पर तो जज बनकर खुद ही फैसला सुनाने लग जाते हैं। ऐसी लगातार बढ़ रही प्रवृत्ति ने आम लोगों के मन में ना सिर्फ ख़बरिया चैनलों के प्रति विश्वास कम किया है बल्कि इन ख़बरों को देखकर लोगों का मन भी खट्ठा हो रहा है।
क्या अब ख़बरिया चैनल अपना चोला बदलने की पहल करेंगे? क्या अब ख़बरिया चैनलों में जन सरोकार की ख़बरे देखने को मिलेंगी? क्या पत्रकारिता की गर्विली परम्परा का सुनहरा दौर वापस आयेगा? ऐसे कई सवालों का जवाब मिल पाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि जनससरोकार से जुड़ने के लिये ना सिर्फ ख़बरों को सूंघने-समझने और पहचानने की क्षमता होनी चाहिए वरन टीआरपी जैसे बाजारू दबाव को झेलने की ताकत भी। लेकिन ज्यादातर चैनलों में जो सबसे बड़ी दिक्कत है वो है पत्रकारों की जमात। ख़बरिया चैनल ज्यादातर सुंदर चेहरों को मौका प्रदान करते हैं, प्रतिभा बाद की मानक होती है। भागती दुनिया में ख़बरिया चैनलों के भीतर पकने वाली खिचड़ी आज किसी से छिपी नहीं है। यहां पसरी गंदगी अंदर का स्वाद तो ख़राब करती है बाहर के लोगों का मन भी कसैला करती है। प्रतिभावान लोगों के लिये चैनलों में जगह कम है, ज्यादातर काम इंटर्न या फिर ट्रेनी करते हैं, इन्हें कम पैसा जो देना होता है। ऐसे में प्रतिभावन लोग की जगह रंगीन चेहरे व कम अनुभवी पत्रकारों के साथ टीआरपी का डब्बा और बाजार का दबाव होगा तो बदलाव कैसे होगा समझना मुश्किल नही है। यानी ख़बरों की ये दुनिया ना तो ठीक से कारपोरेट कल्चर को आत्मसात कर सकी है और ना ही पूर्ण रुप से पत्रकारिता को। ऐसे में क्या हम ख़बरिया चैनलों से उम्मीद कर सकते हैं कि हमें निकट भविष्य में जनसरोकारों की ख़बर देखने को मिल सकती है! है इसका जवाब किसी ख़बरिया पुरोधा के पास?
अख़बारों पर जनसरोकार की ख़बरें ना लिखने का आरोप लगाने वाले ख़बरिया चैनल अब खुद उस राह की ओर मुड़ गये हैं। जबकि इधर, तमाम अख़बारों के तहसील स्तर पर कार्यालय खुलने के बाद वे पहले से ज्यादा आम सरोकार की ख़बरों को अपने पन्नों पर जगह दे रहे हैं। उनके पन्नों पर अब गली, नाली, खंडंजा से लेकर नहर, पानी, किसान और आम आदमी को जगह मिल रही है। जबकि ख़बरिया चैनलों से आम आदमी लगातार गायब होता जा रहा है। कुकुरमुत्तों की तरह उग आये छोटे छोटे ख़बरिया चैनलों ने स्थिति और ज्यादा ख़राब कर रखा है। इन चैनलों में ना तो वर्किंग माहौल दिखता है, ना तो इनके कांसेप्ट में ही कुछ नयापन की झलक मिलती है। अख़बार के दफ्तरों में अपेक्षाकृत स्थितियां ज्यादा बेहतर हैं। जबकि ख़बरिया चैनलों में छोटे स्तर से लेकर बड़े स्तर तक के लोग ख़बरों पर दिमाग लगाने के बजाय एक दूसरे को निपटाने में ही अपनी सारी ऊर्जा व्यय करते हैं। इस स्थिति में ख़बरों को लेकर जो चर्चा होनी चाहिए नहीं हो पाती हैं। टीआरपी के फंडा ने इस स्थिति को और अधिक बदहाल कर रखा है। व्यूअर रीडर का ये डब्बा सिर्फ कुछ शहरों के दर्शकों की बदौलत चैनलों की टीआरपी तय करता है। जबकि उभरते भारत के असंख्य कस्बाई और ग्रामीण दर्शक इस डिब्बे की जद से बाहर रहते हैं, यानी तार्किक और वैज्ञानिक ना होते हुए भी टीआरपी का यह डब्बा चैनलों का बाज़ार तय करता है। और इस पर विश्वास करते हैं खुद को बुद्घिजीवी कहने वाले पत्रकार और मैनेजमेंट के पढ़े लिखे लोग।
ख़बरों के बदलते रंग रूप और जनसरोकार से दूर होते ख़बरिया चैनलों के शीर्ष पर बैठे लोग इन बातों को लेकर अक्सर विधवा विलाप करते रहते हैं। अख़बारों के संपादकीय पेज पर बड़े बड़े कॉलम में सुधारों और जन सरोकारों के साथ जुड़ने की बात दुहराते हैं। लेकिन जब इनको लागू करने की बात आती है तो सारा का सारा विधवा विलाप छूमंतर हो जाता है। फिर वे अपने पुराने ढर्रे पर लौट कर भूत प्रेत के साथ मिलकर दुनिया उलटने पलटने लगते हैं। किसी को रावण का विमान मिलता है तो कोई महलों में आत्मा खोजने-ढूंढने में लग जाता है। ख़बरिया चैनलों को आम आदमी की समस्या, किसानों की समस्या, छोटी बड़ी खोज या छोटे स्तर पर लोगों की जीवन को सुलभ बनाने वाले आविष्कार नज़र नहीं आते हैं। लेकिन शाह रुख का कुत्ता बीमार पड़ गया तो चैनलों के लिये यह बड़ी ख़बर बन जाती है। महंगाई से आम आदमी दाना-पानी के लिये परेशान है, इसकी ख़बरे कम दिखती हैं, फैशन शो में कपड़े कितने महंगे हैं यह ख़बर लीड बन जाती है। ख़बरिया चैनल के शीर्षस्थ लोग इसमें बदलाव की बात तो करते हैं परन्तु उनकी चाहत होती है कि ये बदलाव लाने वाला भगत सिंह पड़ोस के चैनल में पैदा हो। ख़बरों के बिगड़ने के कारण तो कई हैं, जिनपर चर्चा की जा सकती है। परन्तु यहां भेड़ चाल में चलने की परम्परा पुरानी होती जा रही है। जैसे मनोरंजन चैनल सास-बहू के साजिशों से उबरे तो अब कस्बाई मानसिकता को पकड़ कर आगे बढ़ रहे हैं। यानी बदलाव की बयार के बाद भी भेड़चाल। कुछ ऐसी ही स्थिति ख़बरिया चैनलों की है। किसी एक चैनल पर कोई कार्यक्रम हिट हुआ नहीं कि उस ढर्रे पर दर्जनों चैनल चलने लगते हैं। इसके अलावा ख़बरिया चैनलों की खास लोगों की निजी जिंदगी में ताक झांक भी ज्यादा बढ़ गई है। कई ख़बरिया चैनल कुछ मामलों पर तो जज बनकर खुद ही फैसला सुनाने लग जाते हैं। ऐसी लगातार बढ़ रही प्रवृत्ति ने आम लोगों के मन में ना सिर्फ ख़बरिया चैनलों के प्रति विश्वास कम किया है बल्कि इन ख़बरों को देखकर लोगों का मन भी खट्ठा हो रहा है।
क्या अब ख़बरिया चैनल अपना चोला बदलने की पहल करेंगे? क्या अब ख़बरिया चैनलों में जन सरोकार की ख़बरे देखने को मिलेंगी? क्या पत्रकारिता की गर्विली परम्परा का सुनहरा दौर वापस आयेगा? ऐसे कई सवालों का जवाब मिल पाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि जनससरोकार से जुड़ने के लिये ना सिर्फ ख़बरों को सूंघने-समझने और पहचानने की क्षमता होनी चाहिए वरन टीआरपी जैसे बाजारू दबाव को झेलने की ताकत भी। लेकिन ज्यादातर चैनलों में जो सबसे बड़ी दिक्कत है वो है पत्रकारों की जमात। ख़बरिया चैनल ज्यादातर सुंदर चेहरों को मौका प्रदान करते हैं, प्रतिभा बाद की मानक होती है। भागती दुनिया में ख़बरिया चैनलों के भीतर पकने वाली खिचड़ी आज किसी से छिपी नहीं है। यहां पसरी गंदगी अंदर का स्वाद तो ख़राब करती है बाहर के लोगों का मन भी कसैला करती है। प्रतिभावान लोगों के लिये चैनलों में जगह कम है, ज्यादातर काम इंटर्न या फिर ट्रेनी करते हैं, इन्हें कम पैसा जो देना होता है। ऐसे में प्रतिभावन लोग की जगह रंगीन चेहरे व कम अनुभवी पत्रकारों के साथ टीआरपी का डब्बा और बाजार का दबाव होगा तो बदलाव कैसे होगा समझना मुश्किल नही है। यानी ख़बरों की ये दुनिया ना तो ठीक से कारपोरेट कल्चर को आत्मसात कर सकी है और ना ही पूर्ण रुप से पत्रकारिता को। ऐसे में क्या हम ख़बरिया चैनलों से उम्मीद कर सकते हैं कि हमें निकट भविष्य में जनसरोकारों की ख़बर देखने को मिल सकती है! है इसका जवाब किसी ख़बरिया पुरोधा के पास?
3 टिप्पणियां:
achchhi bat hai.narayan narayan
vvvv
बढि़या हैं मित्र
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