तुलसी सिंह राजपूत ने किया कोर्ट में सरेंडर, जेल भेजे गए : किसी भी अखबार ने नहीं छापी तुलसी के सरेंडर की फोटो : हिंदुस्तान तथा जागरण के पत्रकारों ने 'आज' के फोटोग्राफर से डिलिट कराईं तस्वीरें : ये वो तुलसी नहीं हैं जिन्हें हम अपने घरों में पूजते हैं, बल्कि ये वो तुलसी हैं जो अपनी हरकतों से इस पावन नाम को भी अपवित्र करते हैं. इनकी अपवित्र जड़ें अखबारों के पवित्र पन्नों को बदरंग कर डाला है. आइए अब आपको सुनाते हैं बेगैरत पत्रकारों के तुलसी भैया की कथा. चंदौली में चार फरवरी को कांग्रेस के पर्यवेक्षक एवं महाराष्ट्र से एमएलसी भाई जगताप पर जिला मुख्यालय पर जानलेवा हमला तथा फायरिंग करने वाले तुलसी सिंह राजपूत ने कल सायंकाल चंदौली के सीजेएम कोर्ट में आत्मसमर्पण कर दिया.
धनपति बन चुके तुलसी को अब ताकत की जरूरत महसूस होने लगती है. इसके लिए तुलसी महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी से जुड़ जाते हैं, लेकिन वहां चुनावी दाल गलती नहीं दिखती है. तब तुलसी को अपने गृह जनपद की याद आती है. चंदौली को अपना कर्मभूमि बनाने के लिए जोर लगाने लगते हैं. कैली-कुरहना गांव में कई हेक्टेयर भूमि खरीदकर उस पर राजपूत एग्रो समूह बनाते हैं. और ऐलान होता है कि अब जिले के युवाओं को यहां रोजगार दिया जाएगा. कई लोगों ने उनके मार्कशीट जमा कराए जाते हैं. युवकों को पेंशन बांटने के वादे किए जाते हैं. अन्य तमाम तरह के वादे भी होते हैं. एक बड़ा धनपति देखकर जिले के तमाम लोग उनके इर्द-गिर्द सटने लगते हैं. जब पजेरो जैसी महंगी गाडि़यों का काफिला गुजरता तो लोग कौतूहल से देखते. अखबार वालों को भी अपने लिए एक नया शिकार दिखाई देने लगा. तमाम तरीकों से तुलसी को अपने जाल में फांसने के लिए चारा फेंका जाने लगा. सभी बड़े अखबार के पत्रकार तुलसी से नजदीकी बढ़ाने के लिए तमाम संपर्कों का सहारा लेने लगे.
तुलसी ने भी फंसने से पहले पत्रकारों की खूब आवाभगत की. उन्हें समाजवादी पार्टी से टिकट मिलने की पूरी उम्मीद थी. पैसे की पॉवर के बावजूद पार्टी ने तुलसी को टिकट नहीं दिया. जिसके बाद
तुलसी सपा का दामन छोड़ दिया. कई पार्टियों में उन्होंने कोशिश की, लेकिन दाल कहीं नहीं गली. इस दौरान उन्होंने तमाम अखबारों को विज्ञापनों से उपकृत किया. पत्रकारों का व्यक्तिगत सेवा भी हुआ. तुलसी के पक्ष में काफी खबरें छपी पर किसी बड़ी पार्टी ने इनके अतीत को देखते हुए टिकट नहीं दिया. मजबूरी में तुलसी ने भारतीय समाज पार्टी जैसी क्षेत्रीय पार्टी का दामन थाम लिया. पार्टी ने इन्हें लोकसभा चुनावों के लिए अपना उम्मीदवार भी घोषित कर दिया. इसके बाद ही शुरू हो गया इनका और अखबारों का प्रेम. अखबारों और पत्रकारों ने इनसे पैसे कूटे और इन्होंने अखबारों से समाचार लूटे. हिंदुस्तान और जागरण इनके दास बन गए. दोनों अखबारों को 20 से 25 लाख रूपये तक के विज्ञापन मिले. जिले और बनारस के पत्रकार उपकृत हुए अलग से. कहते हैं ना कि नमक खाने के बाद आंख शर्माती है, तब से ही जिले के कथित बड़े पत्रकार आज तक तुलसी से शर्माते हैं और मजबूरी में इनके खिलाफ खबरें देने के पहले इनका पूरा ख्याल रखा जाता है.
लोकसभा के चुनावों में ही दैनिक जागरण और हिंदुस्तान ने अपनी तरफ से इन्हें लोकसभा में भेज दिया था. वो तो जनता ने धोखा दे दिया नहीं तो तुलसी सांसद बन गए होते. बनारस से लेकर चंदौली तक बड़े पत्रकार तुलसी से सटने के लिए हर जतन करते थे. जागरण में गांधी मठ का एकछत्र राज है, लिहाजा तुलसी की सीधी डिलिंग वहीं से होती थी. खबरें किस तरह से मेनूपुलेट करनी है इसका निर्धारण भी संपादकीय के एकमात्र केबिन से होता था. जागरण ने भी तुलसी को आंगन-आंगन का प्यारा बना दिया था. यहां पर विज्ञापन के अलावा भी प्यार-मुहब्बत देखने को मिला. अब भी तुलसी जागरण के छोटे यानी क्षेत्रीय प्रतिनिधियों को कुछ नहीं समझते हैं. उन्हें इन प्रतिनिधियों की औकात का पता है कि इनके एकबार छींकने से इन क्षेत्रीय प्रतिनिधियों की बिना सेलरी वाली नौकरी चली जाएगी. लिहाजा क्षेत्रीय प्रतिनिधि भी इनकी सेवा का पूरा ख्याल रखते हैं. और कोशिश करते हैं कि बाकी खबरें भले ही छूट जाएं पर तुलसी की खबरें किसी कीमत पर नहीं छूटनी चाहिए.
हिंदुस्तान तो जागरण से भी एक कदम आगे था. अच्छी खासी डिलिंग का असर साफ दिखता था. इस अखबार के जिला सर्वेसर्वा खुद तुलसी की सभाओं को कवरेज करने जाते थे. इन महोदय के लिए बाकायदा गाड़ी की अलग से व्यवस्था की गई थी. जमकर सेवा होता था इनका. यह अखबार भी जागरण की तरह बस 'तू तुलसी मेरे आंगन का' जैसे कहे अनकहे शब्दों से रंगा रहता था. शैलेंद्र सिंह जैसे प्रत्याशी की खबरें दोनों अखबारों में इधर उधर कहीं रहती थीं या दिखती ही नहीं थीं, पर तुलसी की खबर न हो यह संभव नहीं था. चुनाव के एक या दो दिन पहले हिंदुस्तान ने ऐसा करामात दिखाया कि आम पाठक थू-थू करने लगा था. तुलसी का ऐसा पेड न्यूज छपा था कि जागरूक पाठक पूरी तरह इस अखबार को कोसते दिखे थे. काफी छीछालेदर के चलते अखबार को अगले दिन सफाई छापनी पड़ी कि यह विज्ञापन था. दोनों अखबारों में तुलसी चालीसा इनकी पुरानी कॉपियों में आसानी से देखा जा सकता है.
लोकसभा चुनाव के दौरान तो अमर उजाला से कोई डील नहीं हो सकी थी, परन्तु अब ये अमर उजाला के खास बन गए हैं. अखबार के ताकतवर सज्जन के छोटे भाई बन चुके हैं. तभी इस अखबार ने भी भाई जगताप पर हमला की खबर को इतना प्यार से लिखा था कि लग रहा था, सारी गलती मार खाने वाले भाई जगताप की ही है. सहारा से भी इनकी अच्छी खासी डील हो गई है. खबरें वही जाती हैं, जो इनको बुरी न लगे. आज की स्थिति भी कमोवेश ऐसी ही है. यानी जिले के सभी बड़े अखबार इनके गुलाम बन चुके हैं. बड़े अखबारों के किसी बड़े पत्रकार में इतनी ताकत नहीं है कि वो इनकी सच्चाई लिख सके. या तो पैसे से मैनेज है या फिर विज्ञापन न मिलने का डर है. यानी तुलसी मामले में सारे बड़े अखबार अपने गांडीव टांग चुके हैं.
इस मामले में भी पत्रकारों ने तुलसी का परोक्ष रूप से पूरा साथ दिया. पुलिस को भी पैसे और ताकत के बल पर मैनेज किया गया. नहीं तो आम आदमी को क्रब के अंदर से ढूंढ निकालने वाली पुलिस को लक्जरी गाडि़यों से चलने वाले तुलसी की भनक नहीं लगती. खबर है कि तुलसी को जमानत कराने का पूरा मौका दिया गया. इलाहाबाद हाई कोर्ट से भी जमानत लेने का पूरा प्रयास हुआ, लेकिन बात नहीं बनने पर मजबूरी में तुलसी को आत्म समर्पण करना पड़ा. परन्तु उनके शुभचिंतकों ने ऐसी राह तैयार कराई की ये आसानी के साथ कोर्ट में सरेण्डर कर सकें. और इसमें इनके पत्रकार भाइयों ने पूरा साथ दिया.
सीजेएम कोर्ट ने तुलसी सिंह को जमानत देने से इनकार करते हुए 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया. कोर्ट मुकदमें की अगली सुनवाई 24 फरवरी को करेगी. उल्लेखनीय है कि कई संगीन मामलों में आरोपी और अब्दुल करीम तेलगी के निकट सहयोगी तुलसी सिंह राजपूत ने पर्यवेक्षक के रूप में चंदौली आए भाई जगताप के ऊपर अपने समर्थकों के साथ हमला कर दिया था. जगताप को
धनपति बन चुके तुलसी को अब ताकत की जरूरत महसूस होने लगती है. इसके लिए तुलसी महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी से जुड़ जाते हैं, लेकिन वहां चुनावी दाल गलती नहीं दिखती है. तब तुलसी को अपने गृह जनपद की याद आती है. चंदौली को अपना कर्मभूमि बनाने के लिए जोर लगाने लगते हैं. कैली-कुरहना गांव में कई हेक्टेयर भूमि खरीदकर उस पर राजपूत एग्रो समूह बनाते हैं. और ऐलान होता है कि अब जिले के युवाओं को यहां रोजगार दिया जाएगा. कई लोगों ने उनके मार्कशीट जमा कराए जाते हैं. युवकों को पेंशन बांटने के वादे किए जाते हैं. अन्य तमाम तरह के वादे भी होते हैं. एक बड़ा धनपति देखकर जिले के तमाम लोग उनके इर्द-गिर्द सटने लगते हैं. जब पजेरो जैसी महंगी गाडि़यों का काफिला गुजरता तो लोग कौतूहल से देखते. अखबार वालों को भी अपने लिए एक नया शिकार दिखाई देने लगा. तमाम तरीकों से तुलसी को अपने जाल में फांसने के लिए चारा फेंका जाने लगा. सभी बड़े अखबार के पत्रकार तुलसी से नजदीकी बढ़ाने के लिए तमाम संपर्कों का सहारा लेने लगे.
तुलसी ने भी फंसने से पहले पत्रकारों की खूब आवाभगत की. उन्हें समाजवादी पार्टी से टिकट मिलने की पूरी उम्मीद थी. पैसे की पॉवर के बावजूद पार्टी ने तुलसी को टिकट नहीं दिया. जिसके बाद
लोकसभा के चुनावों में ही दैनिक जागरण और हिंदुस्तान ने अपनी तरफ से इन्हें लोकसभा में भेज दिया था. वो तो जनता ने धोखा दे दिया नहीं तो तुलसी सांसद बन गए होते. बनारस से लेकर चंदौली तक बड़े पत्रकार तुलसी से सटने के लिए हर जतन करते थे. जागरण में गांधी मठ का एकछत्र राज है, लिहाजा तुलसी की सीधी डिलिंग वहीं से होती थी. खबरें किस तरह से मेनूपुलेट करनी है इसका निर्धारण भी संपादकीय के एकमात्र केबिन से होता था. जागरण ने भी तुलसी को आंगन-आंगन का प्यारा बना दिया था. यहां पर विज्ञापन के अलावा भी प्यार-मुहब्बत देखने को मिला. अब भी तुलसी जागरण के छोटे यानी क्षेत्रीय प्रतिनिधियों को कुछ नहीं समझते हैं. उन्हें इन प्रतिनिधियों की औकात का पता है कि इनके एकबार छींकने से इन क्षेत्रीय प्रतिनिधियों की बिना सेलरी वाली नौकरी चली जाएगी. लिहाजा क्षेत्रीय प्रतिनिधि भी इनकी सेवा का पूरा ख्याल रखते हैं. और कोशिश करते हैं कि बाकी खबरें भले ही छूट जाएं पर तुलसी की खबरें किसी कीमत पर नहीं छूटनी चाहिए.
हिंदुस्तान तो जागरण से भी एक कदम आगे था. अच्छी खासी डिलिंग का असर साफ दिखता था. इस अखबार के जिला सर्वेसर्वा खुद तुलसी की सभाओं को कवरेज करने जाते थे. इन महोदय के लिए बाकायदा गाड़ी की अलग से व्यवस्था की गई थी. जमकर सेवा होता था इनका. यह अखबार भी जागरण की तरह बस 'तू तुलसी मेरे आंगन का' जैसे कहे अनकहे शब्दों से रंगा रहता था. शैलेंद्र सिंह जैसे प्रत्याशी की खबरें दोनों अखबारों में इधर उधर कहीं रहती थीं या दिखती ही नहीं थीं, पर तुलसी की खबर न हो यह संभव नहीं था. चुनाव के एक या दो दिन पहले हिंदुस्तान ने ऐसा करामात दिखाया कि आम पाठक थू-थू करने लगा था. तुलसी का ऐसा पेड न्यूज छपा था कि जागरूक पाठक पूरी तरह इस अखबार को कोसते दिखे थे. काफी छीछालेदर के चलते अखबार को अगले दिन सफाई छापनी पड़ी कि यह विज्ञापन था. दोनों अखबारों में तुलसी चालीसा इनकी पुरानी कॉपियों में आसानी से देखा जा सकता है.
लोकसभा चुनाव के दौरान तो अमर उजाला से कोई डील नहीं हो सकी थी, परन्तु अब ये अमर उजाला के खास बन गए हैं. अखबार के ताकतवर सज्जन के छोटे भाई बन चुके हैं. तभी इस अखबार ने भी भाई जगताप पर हमला की खबर को इतना प्यार से लिखा था कि लग रहा था, सारी गलती मार खाने वाले भाई जगताप की ही है. सहारा से भी इनकी अच्छी खासी डील हो गई है. खबरें वही जाती हैं, जो इनको बुरी न लगे. आज की स्थिति भी कमोवेश ऐसी ही है. यानी जिले के सभी बड़े अखबार इनके गुलाम बन चुके हैं. बड़े अखबारों के किसी बड़े पत्रकार में इतनी ताकत नहीं है कि वो इनकी सच्चाई लिख सके. या तो पैसे से मैनेज है या फिर विज्ञापन न मिलने का डर है. यानी तुलसी मामले में सारे बड़े अखबार अपने गांडीव टांग चुके हैं.
इस मामले में भी पत्रकारों ने तुलसी का परोक्ष रूप से पूरा साथ दिया. पुलिस को भी पैसे और ताकत के बल पर मैनेज किया गया. नहीं तो आम आदमी को क्रब के अंदर से ढूंढ निकालने वाली पुलिस को लक्जरी गाडि़यों से चलने वाले तुलसी की भनक नहीं लगती. खबर है कि तुलसी को जमानत कराने का पूरा मौका दिया गया. इलाहाबाद हाई कोर्ट से भी जमानत लेने का पूरा प्रयास हुआ, लेकिन बात नहीं बनने पर मजबूरी में तुलसी को आत्म समर्पण करना पड़ा. परन्तु उनके शुभचिंतकों ने ऐसी राह तैयार कराई की ये आसानी के साथ कोर्ट में सरेण्डर कर सकें. और इसमें इनके पत्रकार भाइयों ने पूरा साथ दिया.
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