इस युग के हर चेहरे का राज बड़ा ही गहरा है
हर गंदे चेहरे के ऊपर सुंदर सा इक चेहरा है
पहचान नहीं आसान किसी की
हर चरित्र ही दोहरा है
इस युग के हर चेहरे का राज बड़ा ही गहरा है
हर जिगर यहां बर्फीला है, दिलों में घना कोहरा है
बदल नहीं सकता कोई खुद को
हर शख्स गूंगा बहरा है
इस युग के हर चेहरे का राज बड़ा ही गहरा है
अमीरों की बस्ती में गरीब बन रहा मोहरा है
कुछ बदलने की उम्मीद नहीं
धोखेबाजों का ऐसा पहरा है
मंगलवार, 25 अगस्त 2009
सोमवार, 24 अगस्त 2009
उम्मीद की चौखट पर गांव
साठ-साला आजादी की धूप में भी
कुम्हलाया हुआ-सा गांव
उम्मीद की चौखट पर बैठा
बाट निहार रहा है
अपने उन बेटों का
जो कभी एक अनमनी-सी दोपहरी
"भैया एक्सप्रेस" में बैठकर चले गए परदेस
भूल गए कच्ची दीवारों और फूस की छतवाला
एक घर भी है कहीं उनका
जहां मां गोबर से लीपकर आंगन
जलाती है रोज तुलसी चौके पर दीया
और करती है बेटों के लिए मंगलकामना
खि़ड़की से लगी घूंघट में छिपी दो आंखें
रोज बरसती हैं भादो के मेघ की तरह
और ताकती है बाट पपीहा की तरह
उम्मीद की चौखट पर बैठा गांव
प्रतीक्षा कर रहा अपने उन बेटों का भी
जो अभी गांव की गलियों-चौबारों में
घूमता-टहलता छेड़ता रहता है कोई न कोई धुन
गांव चाहता है कि ये बच्चे
जल्द से जल्द हों काम लायक
और दुनिया के अंधेरों के बीच
सितारे बनकर चमकें
वक्त की डोर को थाम लें अपनी मुट्ठियों में
और बरसों से बंद खिड़कियों को खोलें
उम्मीद के चौखट पर बैठा गांव
निहार रहा है बाट उस अजन्मे शिशु का भी
जिसे लेना है जन्म
और मिटाना है जग का अंधेरा
ताकि फिर कोई न कहे
"गहन है यह अंधकार"
मैं गांव का अभागा बेटा
जो न गांव लौट सकता है
और न गांव को बिसर सकता
सोचता हूं
कब पूरे होंगे गांव के सपने
कुम्हलाया हुआ-सा गांव
उम्मीद की चौखट पर बैठा
बाट निहार रहा है
अपने उन बेटों का
जो कभी एक अनमनी-सी दोपहरी
"भैया एक्सप्रेस" में बैठकर चले गए परदेस
भूल गए कच्ची दीवारों और फूस की छतवाला
एक घर भी है कहीं उनका
जहां मां गोबर से लीपकर आंगन
जलाती है रोज तुलसी चौके पर दीया
और करती है बेटों के लिए मंगलकामना
खि़ड़की से लगी घूंघट में छिपी दो आंखें
रोज बरसती हैं भादो के मेघ की तरह
और ताकती है बाट पपीहा की तरह
उम्मीद की चौखट पर बैठा गांव
प्रतीक्षा कर रहा अपने उन बेटों का भी
जो अभी गांव की गलियों-चौबारों में
घूमता-टहलता छेड़ता रहता है कोई न कोई धुन
गांव चाहता है कि ये बच्चे
जल्द से जल्द हों काम लायक
और दुनिया के अंधेरों के बीच
सितारे बनकर चमकें
वक्त की डोर को थाम लें अपनी मुट्ठियों में
और बरसों से बंद खिड़कियों को खोलें
उम्मीद के चौखट पर बैठा गांव
निहार रहा है बाट उस अजन्मे शिशु का भी
जिसे लेना है जन्म
और मिटाना है जग का अंधेरा
ताकि फिर कोई न कहे
"गहन है यह अंधकार"
मैं गांव का अभागा बेटा
जो न गांव लौट सकता है
और न गांव को बिसर सकता
सोचता हूं
कब पूरे होंगे गांव के सपने
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