भई, हम जिस देश में रहते हैं, उस देश में जुगाड़ तंत्र का बहुत बड़ा महत्व है। अगर जुगाड़ हो तो कुछ भी हो सकता है। वैसे आपके पास जुगाड़ है, ताकत है और धन है तो आप कोई भी दिवस मना सकते हैं। अब जुगाड़ की हनक देखिए, मनमोहन सिंह जी का जनता से भले ही कभी सीधा सरोकार ना रहा हो, गरीबी उन्होंने कभी देखी ना हो, भूखे पेट किसी रात सोये न हो, खुले आसमान के नीचे सर्दी की रात भले न गुजारी हो, हल्कू की तरह खेत की रखवाली ना की हो, रोजी रोटी के लिये उन्होंने भले ही पलायन ना किया हो, मवेशियों की तरह भरी रहने वाले द्वितीय श्रेणी के रेल डिब्बे में सफर ना किये हों, फिर भी जुगाड़ की बदौलत वो कम से कम सत्तर करोड़ (शेष आबादी तो ढंग की जिंदगी जी रही है) ऐसे लोगों की नुमाइंदगी कर रहे हैं, जो इनमें से किसी ना किसी दर्द से हर रोज दो चार होते हैं। जुगाड़ ही तो था, कि तमाम गतिरोधों के बावजूद वो पिछले कार्यकाल में पांच साल अपनी सरकार चला ले गये।
अब आते हैं संप्रेरणा, विंप्रेरणा जैसे दिवस पर, भई एक कहावत अपने गांवों में बहुत प्रचलित है-जबरा मारे रोवहूं ना देवे, अब आपके पास ताकत है, आपने लोगों का खून चूस कर अपना साम्राज्य खड़ा किया है, आपके बड़े लोगों से संबंध है तो आप ये दिवस ही क्यों आप कोई दिवस मना सकते हो। खून चूसो दिवस, खून पियो दिवस, दर्द देदो दिवस, खुशी लेलो दिवस, पैसा मत दो दिवस, काम पूरा लो दिवस आदि ऐसे कई दिवस हैं, जिन्हें आप अपने जुगाड़, ताकत और लोगों की मजबूरी के दम पर मना सकते हैं। वैसे भी कुछ जगहों पर दिवस का बहुत महत्व होता है। जैसे अखबार वालों को इन दिवसों को बहुत इंतजार रहता है, जो नव वर्ष से शुरू होकर बड़ा दिन पर खतम होता है। इस बीच जितने भी पर्व, त्यौहार या महापुरूष ( जैसे लालू यादव, शिबू सोरेन, हर्षद मेहता, अब्दुल करीम तेलगी आदि) के जन्म दिवस, पुण्य दिवस (अगर लागू हो तो) का बड़ा महत्व होता है, भई विज्ञापन जो चूसना होता है। अब बेचारा पत्रकार खबर छोड़कर विज्ञापन चूसने में ही ज्यादा व्यस्त रहता है ( विज्ञापन ओसामा बिन लादेन का भी मिल जायें तो ये लोग उसे महात्मा बना के छापने में परहेज नहीं करेंगे, आखिर इसी चौथे स्तम्भ में तो समानता की बात होती है ) आखिर सवाल बिना पगार के नौकरी का जो होता है।
भई, अगर आप बिना पगार मांगे मेहनत से काम करेंगे और सबसे ज्यादा विज्ञापन देंगे तो अखबार मालिक आपकी बहुत इज्जत करता है, हो सकता है जिस दिन भूख या दबा के अभाव में आपकी मौत हो जाये, अखबार आपके पुण्यतिथि पर कोई दिवस मना ले (वैसे इसकी संभावना नहीं है, क्योंकि आप उस अखबार के कर्मचारी थोड़े ही थे)। वैसे भी अखबार मालिक यही सोचता है, हमने पत्रकार बना के इसको इज्जत बख्शी और यह ऊपर से कमा खा ही रहा होगा तो तनख्वाह देने की क्या जरूरत है (अब आप इसको खून चूसना नहीं कह सकते हैं)। भई, जब इस तरह अपने अखबार के पास पैसा बचेगा तो वो कोई ना कोई तो दिवस मनायेगा ही। आखिर थोड़े बहुत पैसे खर्च भी तो करने हैं इनकम टैक्स वगैरह वालों को बताने के लिये। अब आप को आता जाता भले ना हो आप संपादक कम सीईओ के बेटे हैं तो अपने बाप के पुस्तैनी धंधे पर आपका हक तो बनता ही है। अब आप छोटे मोटे पत्रकार तो बनेंगे नहीं (यह दूसरी बात है कि आपको पढ़ने या लिखने आता है कि नहीं) बनेंगे तो संपादक ही बनेंगे नहीं तो डाइरेक्टर साहब बनेंगे। अब वैसे भी पत्रकारिता और मिशन शुद्ध रूप से चाटुकारिता और कमीशन बन चुकी है तो आप अपना धंधा चमकाइयेगा या फिर आम लोगों का दर्द उठाकर अपना व्यवसायिक अहित करियेगा ?
अब जुगाड़ है तो आप को भले ही कुछ नहीं आता हो (संस्थान में आपसे ज्यादा विद्वान लोग मौजूद हों, आपसे ज्यादा सीनियर लोग काम कर रहे हों) परन्तु एडीटर या न्यूज एडीटर और मैनेजर तो आप ही बनेंगे, आखिर सवाल जुगाड़ का जो है। तो भाई लोगों, हम और आप जैसे लोगों को यही कहा जायेगा कि फलाने संस्थान ने निकाल दिया तो भड़ास निकाल रहे हैं, वहां नहीं पटी तो बुराई कर रहे हैं। तो ऐसे भाइयों को बता दूं कि मैं भड़ास वगैरह नहीं निकाल रहा हूं, मैं तो सिर्फ जुगाड़ शब्द का गुणगान कर रहा हूं। अगर चाटुकारिता और कमीशन के मेल के साथ जुगाड़ फिट हो जाये तब तो सोने पे सुहागा हो सकता है। अब जुगाड़ होता तो मेरा भी जन्म दिवस 'जुगाड़ दिवस' के रूप में धूमधाम से मनाया जाता। जुगाड़ ना होने के वजह से घर पर सिर्फ पूड़ी, खीर और पनीर आलू की सब्जी खाकर जन्म दिन मना लेते है (भई, देहात गांव के लोग की खुशियां तो इन्हीं पकवानों से मनती है)। अब जुगाड़ ही तो है, जिसे लिखना पढ़ना नहीं आता, वो भी किसी अखबार का ब्यूरो चीफ हो सकता है! वैसे भी आवाज उठाने वालों को कहीं पसंद नहीं किया जाता (अब बीबी की आवाज सुनना तो मजबूरी है), इसलिये इन संस्थानों में आवाज उठाना अघोषित रूप से गैर कानूनी होता है। इसलिये बंधुओं अगर आपको भी अपना जन्म दिन धांसू तरीके से किसी दिवस के रूप में मनवानी हो तो, आवाज उठाने के बजाय, घर से चलते समय मक्खन लेकर चला करें। खुदा ना खास्ते जुगाड़ लग गया तो सांसद या विधायक तो बन ही जायेंगे, मक्खन कुछ ज्यादा लग गया तो फिर आपको सर्वोच्च सम्मान पाने से कोई भी नहीं रोक सकता, खुद आप भी नहीं। इसलिये बंधुओं किसी दिवस पर रोना धोना छोड़कर जुगाड़ में लग जाइये। कल आप भी खबर बेचने के अच्छे बनिया बन सकते हैं।
सोमवार, 12 अक्तूबर 2009
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