बीते 25 फरवरी को जब भाजपा
के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह लखनऊ में पार्टी के कारपोरेट प्रदेश मुख्यालय के
उद्घाटन के दौरान इसे बनवाने वाले दो ठेकेदारों को सम्मानित कर रहे थे तो वहां
मौजूद कार्यकर्ता भौचक्क निगाहों से उन्हें निहार रहे थे, क्यों कि कार्यकर्ताओं की संजीवनी से सांसें जुटाने वाली यूपी भाजपा में
ठेकेदारी प्रथा को सम्मान मिलने की नई परंपरा को
अंगीकार होते देख रहे थे। इस सम्मान से ना केवल पार्टी
का चेहरा बदला-बदला नजर आ रहा था बल्कि चरित्र भी सवालों के घेरे में लिपटा हुआ सा
दिख रहा था। पार्टी की चाल तो खैर गुजराती अधिपत्य के साथ ही बदल चुकी थी।
उद्घाटन
के बाद जब अमित शाह ने कहा कि सभी कार्यकर्ता मिलकर भाजपा की विचारधारा को आगे
बढ़ाएं, तो कार्यकर्ता असमंजस
में थे कि कौन से वाले विचारधारा को आगे बढ़ाना है। त्याग, तपस्या, बलिदान वाले या फिर ठेकेदारी
वाले? यह सवाल भी इसलिए उठे कि
भाजपा के जिस कारपोरेट मुख्यालय का उद्घाटन अमित शाह ने किया, उसके शिलापट्ट पर उनके अलावा किसी और का नाम खुदा हुआ नहीं था। यह भाजपा
में नए 'खुदा' के
अधिपत्य का शिलालेख जैसा है!
दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने देश का
सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश को अपनी तानाशाही राजनीति का प्रयोगशाला बना दिया
है। कारपोरेट मुख्यालय के उद्घाटन शिलापट्ट पर प्रदेश के किसी भी अन्य नेता का
नाम ना होना इसकी बानगी है। इसी तानाशाही अहंकार की बदौलत बिहार में हार झेलने के
बावजूद मोदी-शाह की जुगलबंदी उत्तर प्रदेश में उसी राग को दोहराती नजर आ रही है।
भाजपा को नजदीक से देखते वाले पत्रकार मनोज श्रीवास्तव कहते हैं, 'जिन लोगों के चलते बिहार में भारतीय जनता पार्टी को हार
झेलनी पड़ी, अब उन्हें यूपी की जिम्मेदारी
सौंपी जा रही है। समझा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह उत्तर प्रदेश को
लेकर क्या सोच रहे हैं।'
नरेंद्र
मोदी और अमित शाह की कार्यप्रणाली से अब उत्तर प्रदेश के नेताओं में बेचैनी बढ़ने
लगी है। अमित शाह के खासमखास प्रदेश महामंत्री संगठन सुनील बंसल ने पूरी तरह से
यूपी भाजपा को हाईजैक कर लिया है। उनके बिना अब यूपी भाजपा का पत्ता तक नहीं हिल
रहा है। पिछले दिनों प्रदेश प्रभारी ओम माथुर की अध्यक्षता में हुई बैठकों में
मुख्यालय पर मौजूदगी के बावजूद प्रदेश अध्यक्ष डा. लक्ष्मीकांत बाजपेयी को बैठक
में आमंत्रित न किया जाना इस बात का पुख्ता प्रमाण है।
दरअसल, इसके जिम्मेदार भी यूपी के नेता हैं। इन्हीं विभीषणों की आपसी अदावत ने
गुजरात, राजस्थान से आए नेताओं
को मजबूती प्रदान की और अब नतीजा सामने है। मनोज आगे कहते हैं, 'यह गुजराती जुगलबंदी बड़े राज्यों में ऐसे हालात पैदा करना
चाहती है ताकि उनको चुनौती देने वाला नेता या नेतृत्व मजबूत ना हो सके। नेताओं के
लिहाज से उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए काफी उर्वरा जमीन रही है। कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, कलराज
मिश्र जैसे नेता इसी उत्तर प्रदेश की पैदाइश हैं। अटल बिहारी बाजपेयी की कर्मस्थली
भी यही यूपी रही है। राजनाथ सिंह आज भी दिखावे के तौर पर ही सही सरकार में दूसरे
नंबर की हैसियत में हैं।'
दरअसल, भाजपा
के चाल, चरित्र और चेहरे के बदल जाने का परिणाम यह हुआ
है कि यहां अब काम करने वालों की बजाय गणेश परिक्रमा करने वाले ठेकेदारों को सम्मानित
किया जाने लगा है। उत्तर प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष डा. लक्ष्मीकांत बाजपेयी इसके
सबसे बड़े उदाहरण हैं। डा. बाजपेयी ने उत्तर प्रदेश में मृतप्राय हो चुकी पार्टी
में न केवल जान फूंकी बल्कि अपने कार्यकाल में भाजपा को लोकसभा में ऐतिहासिक जीत
दिलाई, लेकिन गणेश परिक्रमा न करने कीमत चुकाने को
मजबूर हैं और इसी रिजल्ट की बदौलत अमित शाह संगठन के सबसे ताकतवर व्यक्ति बन
चुके हैं। यह शायद भाजपा में ही संभव है कि एक परिणाम के लिए दो तरह के पारितोषिक
मिलते हैं। यही पार्टी नेतृत्व के दोगले चरित्र का उदाहरण भी।
वरिष्ठ
पत्रकार योगेश श्रीवास्तव कहते हैं, 'संभव है कि केंद्रीय
नेतृत्व उत्तर प्रदेश में मजबूत चेहरा न चाहता हो, इसलिए डा. लक्ष्मीकांत बाजपेयी को दरकिनार करने की कोशिश चल रही है। कम से कम
उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, राजनाथ
सिंह और कलराज मिश्र के इधर-उधर होने के बाद डा.
बाजपेयी उत्तर प्रदेश में पार्टी का चेहरा तो बनते ही जा रहे थे। बिहार में भी
मोदी और शाह ने शत्रुघ्न सिन्हा समेत प्रादेशिक नेताओं को हल्के में लिया, जिसकी कीमत उसे हार के रूप में चुकानी पड़ी। यह शायद पहला मौका रहा होगा, जब बिहार की हार के बावजूद भाजपा कार्यकर्ता खुश नजर आ रहे थे। इससे समझा
जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी में क्या चल रहा है।'
यूपी
भाजपा में मोदी और शाह की तानाशाही किस कदर चल रही है, यह प्रदेश अध्यक्ष के चयन में हो रही लगातार देरी से समझा जा सकता है।
ऐसा पहली बार है कि दिसंबर तक हो जाने वाला प्रदेश अध्यक्ष का चयन मार्च बीतने के
बाद अधर में लटका हुआ है। कार्यकर्ता भी उहापोह में अटका हुआ है और इसका प्रभाव
चुनावी तैयारियों पर सीधा पड़ रहा है। आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि केंद्रीय
नेतृत्व यूपी को अपनी मनमर्जी सियासत का प्रयोगशाला बना रखा है। योगेश श्रीवास्तव
कहते हैं, 'भाजपा उत्तर प्रदेश में
लंबे समय से हाशिए पर है। चुनावी तैयारियों में वह सपा-बसपा से तो मीलों पीछे है
ही, इस
बार कांग्रेस ने भी उसे पछाड़ दिया है। चुनावी प्रक्रिया शुरू होने में अब नौ
महीने से भी कम समय रह गया है, लेकिन भाजपा अपना नया
अध्यक्ष तक नहीं ढूंढ पाई है, प्रत्याशी चयन तो दूर
की कौड़ी है।'
पार्टी
के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता कहते हैं, 'यूपी भाजपा के नेता
इतने दबाव और तनाव में कभी नहीं रहे हैं। हालात यह है कि यूपी से जुड़ा निर्णय
लिया जाता है और यहां के नेताओं को भी इसकी जानकारी नहीं होती है। आप समझ सकते हैं
कि यहां के नेताओं का क्या हाल हो गया है पार्टी के अंदर। अब यूपी भाजपा के
नेताओं से सलाह-मशविरा नहीं किया जाता है, उन्हें बस
निर्देशित किया जाता है।' वे आगे जोड़ते हैं, 'अगर नए पार्टी कार्यालय के उद्घाटन के दौरान ठेकेदारों की बजाय वरिष्ठ
एवं बुजुर्ग कार्यकर्ताओं, कर्मचारियों का सम्मान किया
जाता तो एक अच्छा संदेश जाता, लेकिन यह नई भाजपा है, कारपोरेट भाजपा है, इससे इस तरह की भावनात्मक
कामों का उम्मीद करना शायद ज्यादती है।'
पार्टी
के उच्च पदस्थ सूत्रों की माने तो यूपी भाजपा की तरफ से शिलापट्ट पर प्रदेश
प्रभारी ओम माथुर, प्रदेश अध्यक्ष डा. लक्ष्मीकांत बाजपयी, स्थानीय
सांसद व केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह, प्रदेश
महामंत्री संगठन सुनील बंसल, विधानमंडल में नेता सुरेश
खन्ना तथा विधान परिषद नेता हृदय नारायण दीक्षित तथा कार्यालय प्रभारी भारत
दीक्षित के नाम की अनुशंसा की गई थी, लेकिन अमित शाह को
यह नागवार लगा! योगेश श्रीवास्तव कहते हैं, 'इस तरह की सूचनाओं और चर्चाओं से पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल पर बुरा
असर पड़ता है। पार्टी कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग यह मान रहा है कि गुजराती नेता
उनके स्वाभिमान को रौंद रहे हैं। इस तरह के संदेश अगर नीचे तक गए तो मोदी-शाह
जितनी रणनीति बना लें, जितना मैंनेमेंट करें, सर्वे करा लें, विधानसभा चुनाव जीतना मुश्किल
हो जाएगा।'
दरअसल, नरेंद्र मोदी और अमित शाह का ही टेरर नहीं है बल्कि गुजरात से आए ज्यादातर
नेता मोदी-शाह के नाम का सिंदूर लगाकर यूपी के नेताओं को मौके-बेमौके अपमानित कर
रहे हैं। नरेंद्र मोदी का लोकसभा क्षेत्र बनारस ऐसे सिंदूरी नेताओं से खुद को
अपमानित महसूस कर रहा है। बनारस से किसी भी लहर में लगातार जीतने वाले भाजपा
विधायक श्यामदेव राय चौधरी के साथ की गई मोदी एंड कंपनी के व्यवहार से बनारसी
बुरी तरह नाराज हैं। बरेली में हुई किसान रैली से अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है
कि इस रैली के बैनर-पोस्टर से राज्य के नेता गायब रहे। पार्टी के विचार और व्यवहार
में जो अंतर आया है उसी का परिणाम है कि विधान परिषद चुनाव में पार्टी की बुरी गत
हुई। तीन सीटों पर घोषित प्रत्याशियों ने पार्टी को बिना बताए अपने हथियार डाल
दिए। दोगलेपन की इससे ज्यादा इंतहा क्या होगी कि वोटों के गणित में जिस जातिवाद
को भाजपा शराब बताती है, वही
जातिवाद उसके खुद के परिप्रेक्ष में सोमरस (सोशल इंजीनियरिंग) हो
जाता है।
कालाधन
लाने को जुमला बताने वाले अमित शाह शायद आज भी इसी गलतफहमी में हैं कि यूपी में
मिली सफलता उनकी रणनीति की जीत थी। शाह को जमीन पर उतर कर समझना होगा कि यूपी में
मिली जीत मोदी के विकास एजेंडे से ज्यादा केंद्र सरकार से निराश जनता का गुस्सा
था, जिसमें हर जाति-वर्ग का
वोट भाजपा के खाते में आ गिरा था। अमित शाह अपनी जोरदार रणनीति का परिणाम दिल्ली
और बिहार में देख चुके हैं। असम भी कोई अलग नहीं होगा। योगेश श्रीवास्तव कहते हैं, 'लहर में 71 लोकसभा सीटें भले मिल गई हों, लेकिन
उत्तर प्रदेश की राजनीतिक समझ अलग है। यहां जाति-धर्म ही चलेगा। भाजपा फिलहाल उत्तर
प्रदेश को लेकर पूरी तरह असमंजस में है। उसे समझ नहीं आ रहा कि जाति-जाति खेले या
फिर धर्म पर दांव लगाए। पार्टी के कार्यकर्ता हताश हो चुके हैं।'