उम्मीदों भरी एक टोकरी लेकर
अरमानों के रथ पर हुआ था सवार
मां से भी तो लिया था आशीष
तभी तो निकल पाया था अपने गांव से
सोचा था वो अभी भी अपने जैसे होंगे
शहर आए वक्त ही कितना बीता था
वो तो गांव से दूर हुए थे मजबूरी में
वो दूर कहां हुए थे मेरे दिल की छांव से
पर शहर क्या रिश्तों को भूल जाता है
ये सवाल अब भी तो मेरी समझ में नहीं आता है
फिर बचपन के वादे क्यों नहीं आए उन्हें याद
क्यों यादों को मार दी ठोकर खुद अपने पांव से
हमें गम तो उस ठोकर का भी नहीं
हमें तो उनके बदल जाने का भी दर्द नहीं
हम तो परेशान हैं उनकी आंखों की चुप्पी से
गूंगा हरिया भी तो खुश होता था उनकी कांव कांव से.
अरमानों के रथ पर हुआ था सवार
मां से भी तो लिया था आशीष
तभी तो निकल पाया था अपने गांव से
सोचा था वो अभी भी अपने जैसे होंगे
शहर आए वक्त ही कितना बीता था
वो तो गांव से दूर हुए थे मजबूरी में
वो दूर कहां हुए थे मेरे दिल की छांव से
पर शहर क्या रिश्तों को भूल जाता है
ये सवाल अब भी तो मेरी समझ में नहीं आता है
फिर बचपन के वादे क्यों नहीं आए उन्हें याद
क्यों यादों को मार दी ठोकर खुद अपने पांव से
हमें गम तो उस ठोकर का भी नहीं
हमें तो उनके बदल जाने का भी दर्द नहीं
हम तो परेशान हैं उनकी आंखों की चुप्पी से
गूंगा हरिया भी तो खुश होता था उनकी कांव कांव से.
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