बुधवार, 9 जनवरी 2013

अस्थिर राजनीति के लिए अभिशप्‍त झारखंड

ठंड में झारखंड का सियासी पारा गरम हो गया है. झटका खाने की आदती हो चुकी भाजपा के हाथ से गुरुजी ने एक बार फिर झारखंड की कुर्सी खींच ली है. जिस जोड़ तोड़ के बल पर भाजपा ने झारखंड में अपनी सरकार बनाई थी, उसी समीकरण ने उसे जमीन पर ला पटका है. झारखंड मुक्ति मोर्चा के समर्थन वापसी के बाद मुख्‍यमंत्री अर्जुन मुंडा ने राज्‍यपाल को इस्‍तीफा सौंप दिया है. इसके अलावा उनके पास कोई चारा भी नहीं था. अन्‍य दलों के लिए अछूत भाजपा की सरकार के पास इतना संख्‍या बल भी नहीं है कि उन्‍हें जोड़-तोड़ कर अपनी सरकार बचा सके. राजनीतिक अस्थिरता के लिए कुख्‍यात झारखंड पिछले बारह वर्षों में आठ राजनीतिक सरकारें और दो राष्ट्रपति शासन के दौर देखने के बाद ग्‍यारहवी बार सत्‍ता परिवर्तन का शिकार बना है.

नवम्‍बर 2000 में केंद्र में भाजपा शासित एनडीए ने तीन राज्‍यों का गठन किया था. पर तीनों राज्‍यों के भाग्‍य एक जैसे साबित नहीं हुए. छत्‍तीसगढ़ की जनता ने राज्‍य में एक ही सरकार बनाकर स्थिरता की मिसाल कायम की तो उत्‍तराखंड ने हर पांचवें साल सरकार बदल कर राजनीतिक परिपक्‍वता का उदाहरण पेश किया, पर झारखंड अपनी राजनीतिक अस्थिरता के लिए कुख्‍यात हुआ. बारह साल और ग्‍यारह सत्‍ता परिवर्तन, अजीब दास्‍तान बन गई है झारखंड में राजनीतिक अस्थिरता. तीन बार अर्जुन मुंडा, तीन बार शिबू सोरेन तथा एक-एक बार बाबूलाल मरांडी तथा मधु कोड़ा ने भी झारखंड पर राज किया. दो बार राष्‍ट्रपति शासन के सहारे राज्‍य का कामकाज चला. ये झारखंड की राजनीतिक अस्थिरता का ही असर रहा कि राज्‍य में एक निर्दलीय विधायक मुख्‍यमंत्री बनकर रिकार्ड कायम किया.

शिबू सोरेन यानी गुरुजी के भाजपा से समर्थन वापस लेने के बाद एक बार चाभी फिर कांग्रेस और बाबूलाल मरांडी के झारखंड विकास मोर्चो के हाथ में आ गई है. राज्‍य की 81 विधानसभा सीटों में 18 पर भाजपा, 18 पर झामुमो, 13 पर कांग्रेस, 11 पर झाविमो, 6 पर आजसू, 5 पर राजद, 2 पर जदयू तथा 9 पर अन्‍य का कब्‍जा है. भाजपा की सरकार झामुमो के अतिरिक्‍त आजसू के सहयोग से चल रही थी. अब झामुमो के अलग हो जाने के बाद चाभी कांग्रेस और झाविमो के हाथ में आ गई है. दोनों दलों ने गठबंधन करके विधानसभा चुनाव लड़ा था. पर सबसे महत्‍वपूर्ण यह है कि कांगेस क्‍या रवैया अपनाती है. जिस तरह की स्थिति है, उसमें कम ही संभावना है कि कांग्रेस एवं झाविमो किसी दूसरे की सरकार बनवाने में मदद करें.

कांग्रेस हाईकमान पूरे मामले पर नजर रखे हुए है तथा राज्‍य ईकाई से पल पल की खबर ले रहा है. सरकार बनाने की संभावनाओं पर भी विचार हो रहा है. अगर संभावना बनती है तो बाबूलाल मरांडी के नेतृत्‍व में कांग्रेस सरकार बनाने की सोच सकती है. क्‍योंकि राज्‍य में 2014 के आम चुनाव में बीजेपी तथा झामुमो को टक्‍कर देने के लिए कांग्रेस को बाबूलाल मरांडी के साथ की जरूरत पड़ेगी. इस जमीनी हकीकत को कांग्रेस अच्‍छी तरह समझती है. अगर संभावनाएं नहीं बनी तो फिर राष्‍ट्रपति शासन या फिर चुनाव ही एक मात्र विकल्‍प होगा. कांग्रेस सरकार बनाने की संभावनाएं टटोलने के साथ दूसरी रणनीतियों पर भी विचार कर रही है.  

सन 2000 में राज्‍य का गठन होने के बाद भाजपा नेता बाबूलाल मरांडी इस राज्‍य के पहले सीएम बने. नम्‍बर महीने में उन्‍होंने झारखंड की सत्‍ता संभाली. मार्च, 2003 में इस राज्‍य ने पहली राजनीतिक अस्थिरता का सामना किया. बाबूलाल मरांडी से नाराज तत्‍कालीन समता पार्टी एवं वनांचल कांग्रेस ने सरकार से समर्थन वापस लेकर उनके हाथ से कुर्सी खींच ली. पर राज्‍य का प्रभार देख रहे राजनाथ सिंह ने फिर जोड़-तोड़ करके मरांडी को हटाकर अर्जुन मुंडा के नेतृत्‍व में फिर से भाजपा की सरकार का गठन करा दिया. उठा पटक और धमकी के बीच किसी तरह से अर्जुन मुंडा ने कार्यकाल पूरा किया. वर्ष 2005 में हुए दूसरे विधानसभा के चुनावों में त्रिशंकु विधानसभा का गठन होने के बाद पहली बार शिबू सोरेन राज्‍य के सीमए बने. पर वे नौ दिन से ज्‍यादा नहीं टिक पाए. बहुमत साबित नहीं होने के चलते उन्‍हें इस्‍तीफा देना पड़ा.

शिबू के इस्‍तीफा देने के बाद अर्जुन मुंडा के नेतृत्‍व में एक बार फिर भाजपा की सरकार का गठन हुआ. लेकिन कांग्रेस ने निर्दलीय मधु कोड़ा को सरकार से अलग करके सितम्‍बर 2006 में अर्जुन मुंडा की सरकार को गिरा दिया. इसके बाद किसी भी राज्‍य में पहली बार निर्दलीय विधायक के नेतृत्‍व में सरकार का गठन हुआ. मधु कोड़ा राज्‍य के सीएम बने. मात्र अपने 23 माह के कार्यकाल में कोड़ा ने जो गुल खिलाए वो इतिहास बन चुका है. अरबों रुपये के भ्रष्‍टाचार के आरोप में झारखंड का यह पूर्व सीएम जेल की हवा खा रहा है. कोड़ा की सरकार के गिर जाने के बाद अगस्‍त, 2008 में शिबू सोरेन दूसरी बार राज्‍य के सीएम बने. लेकिन वे इस बार भी छह महीने से ज्‍यादा समय तक सीएम की कुर्सी पर काबिज नहीं रह पाए. विधान सभा चुनाव राजा पीटर से हारने की वजह से उन्‍हें सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी. उन्‍होंने जनवरी, 2009 में इस्‍तीफा दे दिया.

इसके बाद पहली बार राज्‍य में राष्‍ट्रपति शासन लगा. लगभग एक सालों तक राज्‍य में राष्‍ट्रपति शासन लगा रहा. 2009 में अंतिम महीनों में हुए विधानसभा चुनाव में राज्‍य में फिर से त्रिशंकु विधान सभा का गठन हुआ. 23 दिसम्‍बर को विधानसभा के गठन की अधिसूचना जारी होने के बाद शिबू सोरेन ने तीसरी बार भाजपा के सहयोग से राज्‍य की सत्‍ता संभाली. राज्‍य में बीजेपी के सहयोग से सरकार चला रहे गुरुजी ने अप्रैल 2010 में लोकसभा में केंद्रीय बजट पर भाजपा के कटौती प्रस्‍ताव के विरोध में यूपीए का समर्थन कर दिया. नाराज बीजेनी ने मई, 2010 में झामुमो सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया, जिससे सरकार गिर गई. 

किसी भी दल के पास सरकार बनाने लायक संख्‍या बल न होने के चलते राज्‍य में दूसरी बार राष्‍ट्रपति शासन लगा. लगभग पांच महीने तक राज्‍य में राष्‍ट्रपति शासन लागू रहने के बाद झामुमो ने बिना शर्त भाजपा को समर्थन देने की घोषणा की, जिसके बाद सितम्‍बर, 2010 में अर्जुन मुंडा के नेतृत्‍व में भाजपा सरकार का गठन हुआ. मुंडा तीसरी बार राज्‍य के मुख्‍यमंत्री बने. अब झामुमो ने मुंडा सरकार से समर्थन वापसी का निर्णय लेकर राज्‍य में ग्‍यारहवीं सरकार के गठन का रास्‍ता तैयार कर दिया है. एक बार फिर राज्‍य में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बन गया है. राज्‍य में किसी भी दल की सरकार बनती है तो उसके ऊपर भी अस्थिरता के बादल मंडराते रहेंगे, लिहाजा इस बार हर दल अपने कदम फूंक फूंक कर रखना चाहेगा.

बुधवार, 2 जनवरी 2013

वे कहते थे

वो कहते थे पत्‍थर पर दूब उगा नहीं करता
मुझे लगता था उगा लूंगा पत्‍थर पर दूब
वो कहते थे रेत में पानी मिला नहीं करता
मुझे लगता था रेत से निकाल लूंगा पानी की बूंद

वो कहते थे गरीबों को सपने देखने का हक नहीं
मुझे लगता था ख्‍वाब को बना लूंगा हकीकत
वो कहते थे प्‍यार भी बिकता है आजकल
मुझे लगता था दिल देकर किसी को बना लूंगा जीनत

पर शायद वे सच कहते थे, बहुत सच
तभी तो पत्‍थर दिल आंखों में डाल जाते हैं रेत
तभी तो मु‍फलिसों के सपने नहीं होते पूरे
तभी तो हर प्‍यार का लग जाता है एक कीमत

वे शायद दिमाग से सोचते थे, दिल से नहीं
उन्‍हें शायद इस दुनिया में जीने का हुनर पता था
वे पत्‍थर दिल भी नहीं थे, पर सपने तोड़ना आता था
वे जानते थे दिल की हकीकत और दिमाग की कीमत

जिंदगी कहां इतनी सहज सरल है

जिंदगी कहां इतनी सहज सरल है
राहें टेढ़ी मेढ़ी हैं, पगडंडियों में दलदल है
पी गए जिसे अमृत समझकर दोस्‍तों
वो तो वास्‍तव में गले में उतरा गरल है..

विश्‍वास का टूटना ही लिखा है किताबों में
रिश्‍ता हिसाबों में भी कहां इतना सरल है
वे कहां आएंगे इस उजाड़ सी झोपड़ी में
उनके ख्‍वाबों में तो बड़ा सा इक महल है.

इसी साल तो इंसानियत की भी बेरहमी से हत्‍या हुई

प्रत्‍येक बार की तरह इस बार भी मात्र कुछ घंटों के बाद पुराने कैलेंडर देश की सिस्‍टम की तरह बेकार हो जाएंगे, पुराने पड़ जाएंगे. गनीमत है कि लोगों के पास अपनी जरूरत के अनुसार नया कैलेंडर बदलने का अधिकार है, सामर्थ्‍य है. पर हम इसके अलावा कुछ भी नहीं बदल सकते. ना तो इस देश को ना देशवासियों के नियति को, ना ही इसको चलाने वालों की नीयत को. अपने भीतर इतिहास, कुछ खुशियां और बहुत सारा दर्द लिए यह साल भी सालता हुआ बीत जाने का आतुर है. इस साल ही तो आम और खास के बीच की खाई और गहरी हुई है. इस साल ही तो सत्‍ता चलाने वाले कुछ ज्‍यादा ही गूंगे और बहरे हुए हैं. इसी साल तो संवेदनाएं आईसीयू में जाती दिखीं. इसी साल तो साढ़े छह दशक का दर्द गुस्‍सा बनकर सड़कों पर उतरा. इसी साल तो इतिहास के पन्‍नों में सिमटे जन आंदोलन प्रसव पीड़ा से अकुलाए हैं. और इसी साल तो इंसानियत की भी बेरहमी से हत्‍या हुई है. इसी साल तो चुप्पियों ने तकलीफ पहुंचाया. इसी साल 2012 ने इंडिया और भारत के बीच की दूरियों को भी बढ़ाया. इंडिया सैकड़ों रुपये का खाना अपनी प्‍लेटों में छोड़ता रहा वहीं भारत के लोगों को पेट भरने लिए 26 रुपये पर्याप्‍त साबित हुआ. खैर. उम्‍मीद है कि नया साल सबके लिए शुभ होगा.

जनसंदेश टाइम्‍स में सैलरी को लेकर पेजीनेटरों का हंगामा

जनसंदेश टाइम्‍स, बनारस में फिर एक बार सैलरी को लेकर बवाल देखने को मिला. प्रबंधन ने अपने उन कर्मचारियों की सैलरी तो दे दी, जिनकी सैलरी खाते में जाती है, परन्‍तु नगद पैसा पाने वालों को सैलरी नहीं मिल पाई. बताया जा रहा है कि यहां पर दो तरह की व्‍यवस्‍था लागू है. कुछ कर्मचारियों की सैलरी सीधे उनके खाते में जाती है, जबकि तमाम को नकद पैसा दिया जाता है. हालांकि इसके बारे में आरोप लगाया जाता है कि यह ब्‍लैकमनी को सफेद करने की कोशिश में होता है. खैर.

अभी मामला ये है कि सोमवार को नगद सैलरी पाने वाले पेजीनेटर अमन कुमार कुमार को नवम्‍बर की सैलरी नहीं मिली. नाराज अमन ने सोमवार को कार्यालय में सैलरी के लिए हंगामा कर दिया, जिससे काम प्रभावित होने लगा. जिसके बाद अखबार की ऐसी-तैसी कर देने वाले विजय विनीत ने अपने पास से अमन को पैसा देकर मामले को बिगड़ने से बचाया. और अन्‍य लोगों को आश्‍वासन की घुट्टी पिलाकर मामले को सलटाया, जिसके बाद किसी तरह अखबार का काम पूरा हुआ.

मंगलवार की रात फिर बवाल हो गया. सात पेजीनेटरों ने सैलरी को लेकर हड़ताल कर दिया. उन लोगों ने काम करने से इनकार कर दिया. प्रबंधन के हाथ-पांव फूल गए. सातों पेजीनेटर किसी भी तरीके से बिना सैलरी के मानने को तैयार नहीं थे. वे आश्‍वासन देने वाले विजय विनीत की भी बात मानने को तैयार नहीं थे. सूत्रों का कहना है कि बाद में संपादक एवं सीजीएम के हस्‍तक्षेप के बाद किसी तरह मामला सलटा. इन लोगों ने किसी तरह पैसे का जुगाड़ कर सभी सातों पेजीनेटरों को उपलब्‍ध करवाया, जिसके बाद अखबार का फिर से काम शुरू हो सका.

वैसे भी सूत्रों का कहना है कि जिस तरह से अखबार की आंतरिक स्थिति है तथा अखबार में जूनियर लेबल के लोगों का हस्‍तक्षेप बढ़ा है, उससे अखबार को चला पाना बहुत ही मुश्किल है. पेज के  लेआउट का एबीसी नहीं जानने वाले लोग इसमें हस्‍तक्षेप करने लगे हैं तभी से इस तरह की स्थिति पैदा हुई है. सूत्र यह भी बताते हैं कि प्रबंधन ने अब इस अखबार को घाटे की स्थिति में चलाने के मामले में हाथ खड़ा कर लिया है. कहा जा रहा है कि मार्च तक इस अखबार को ''पैसे लाओ और अखबार चलाओ'' की स्थिति में लाए जाने का निर्देश दे दिया गया है. अगर मार्च तक स्थिति नहीं सुधरी तो संभव प्रबंधन अपने इस सफेद हाथी पर ताला जड़ देगा

रविवार, 30 दिसंबर 2012

एक अ‍पवित्र तुलसी कथा!

तुलसी सिंह राजपूत ने किया कोर्ट में सरेंडर, जेल भेजे गए : किसी भी अखबार ने नहीं छापी तुलसी के सरेंडर की फोटो : हिंदुस्‍तान तथा जागरण के पत्रकारों ने 'आज' के फोटोग्राफर से डिलिट कराईं तस्‍वीरें : ये वो तुलसी नहीं हैं जिन्‍हें हम अपने घरों में पूजते हैं, बल्कि ये वो तुलसी हैं जो अपनी हरकतों से इस पावन नाम को भी अ‍पवित्र करते हैं. इनकी अपवित्र जड़ें अखबारों के पवित्र पन्‍नों को बदरंग कर डाला है. आइए अब आपको सुनाते हैं बेगैरत पत्रकारों के तुलसी भैया की कथा. चंदौली में चार फरवरी को कांग्रेस के पर्यवेक्षक एवं महाराष्‍ट्र से एमएलसी भाई जगताप पर जिला मुख्‍यालय पर जानलेवा हमला तथा फायरिंग करने वाले तुलसी सिंह राजपूत ने कल सायंकाल चंदौली के सीजेएम कोर्ट में आत्‍मसमर्पण कर दिया.

सीजेएम कोर्ट ने तुलसी सिंह को जमानत देने से इनकार करते हुए 14 दिन की न्‍यायिक हिरासत में भेज दिया. कोर्ट मुकदमें की अगली सुनवाई 24 फरवरी को करेगी. उल्‍लेखनीय है कि कई संगीन मामलों में आरोपी और अब्‍दुल करीम तेलगी के निकट सहयोगी तुलसी सिंह राजपूत ने पर्यवेक्षक के रूप में चंदौली आए भाई जगताप के ऊपर अपने समर्थकों के साथ हमला कर दिया था. जगताप को
तुलसी
पुलिस कस्‍टडी में आसमानी शर्ट में खड़े तुलसी सिंह राजपूतकाफी चोटें आई थीं. दस लोगों के खिलाफ चंदौली कोतवाली में तुलसी के खिलाफ नामजद मुकदमा दर्ज कराया गया था. कांग्रेस से तुलसी को निकाल भी दिया गया था. रिपोर्ट के बावजूद पुलिस तुलसी का पता लगाने या गिरफ्तार करने में सफल नहीं हो सकी. वे इत्मिनान से पूरे लाव लश्‍कर के साथ सीजेएम कोर्ट में आत्‍म समर्पण कर दिए. इस बार भी तमाम बड़े-छोटे अखबारों में काम करने वाले उनके शुभचिंतक उनके साथ खड़े रहे. खबर देने की मजबूरी न होती तो शायद उनके ये अखबारी सहयोगी समर्पण की खबर भी प्रकाशित नहीं करते. किसी भी बड़े अखबार ने तुलसी के आत्‍मसमर्पण की फोटो प्रकाशित नहीं की. कथित तौर पर हिंदुस्‍तान और जागरण के ब्‍यूरोचीफों ने दैनिक आज के फोटोग्राफर अभिलाष पाण्‍डेय के कैमरे से फोटो भी डिलीट करा दी. फोटो लेने के दौरान अभिलाष के साथ तुलसी के समर्थकों ने दुर्व्‍यवहार भी किया.
तुलसी सिंह राजपूत, चंदौली जिले के ऐसे नवधनाढ़यों में शामिल हैं, जो अचानक किसी चमत्‍कार के चलते उद्यमी बन जाते हैं. कुछ बड़े अखबारों के भी खास हैं. कुछ पत्रकारों के भी खास हैं. लेकिन राजपूत की असली कहानी किसी परीकथा से कम नहीं है. रोडपति से करोड़पति बनने तक के सफर में कई काले-पीले काम करने के आरोप इनके ऊपर हैं. तमाम सही-गलत आरोप होने के बावजूद ये बनारस से प्रकाशित होने वाले तमाम अखबारों के प्रिय हैं. अपने पैसे के बल पर ही तुलसी ने इन अखबारों तथा इनके पत्रकारों को रखैल बनाकर रखा है. तभी तो खबर छापने से पहले तुलसी का पक्ष प्रमुखता से रखा जाता है. अपने को आम जनता की आवाज कहने वाले बनारस तथा जिले के तमाम पत्रकार तुलसी सिंह के चहेते हैं. इसके एवज में तुलसी इन्‍हें उपकृत भी करते रहते हैं. अखबारों को तो विज्ञापन देते ही हैं व्‍यक्तिगत रूप से भी चंदौली के कुछ खास पत्रकारों की सेवा भी करते रहते हैं. और ये पत्रकार इनके आगे-पीछे पालतू जानवर की तरह घूमते रहते हैं.कक्षा आठ तक पढ़ा तुलसी नाम का एक युवक चंदौली से कमाने के लिए मुंबई जाता है. मेहनत करता है, दूध बेचता है. लेकिन उसे ये धंधा रास नहीं आता है. इस युवक का सपना सिर्फ पैसे कमाना होता है. इसके बाद ये युवक अवैध तेल के धंधे में उतर जाता है. तमाम तरह के उल्‍टे सीधे कामों के बीच इस पर कई मामले दर्ज होते हैं. इसी बीच धीरे-धीरे रईस होता तुलसी सिंह राजपूत तेल के अवैध धंधे के अलावा रियल एस्‍टेट के धंधे में उतरता है. सारा ब्‍लैक मनी ह्वाइट होने लगता है. इस बीच तुलसी का संपर्क कई सौ करोड़ रूपये का स्‍टॉम्‍प घोटाला करने वाले अब्‍दुल करीम

पुलिस घेरे में तुलसी सिंह राजपूत तेलगी के साथ होता है. उससे नजदीकी बढ़ते-बढ़ते  लक्ष्‍मी भी अचानक बढ़ने लगती हैं. इसके साथ मामले दर्ज होने की संख्‍या भी बढ़ने लगती है.  महाराष्‍ट्र में कई मामलों में आरोपी होने के बावजूद तुलसी का कुछ नहीं होता है, क्‍योंकि राजपूत मुंबई कांग्रेस अध्‍यक्ष और राज्‍य के पूर्व मंत्री कृपा शंकर सिंह का भी खासम खास बन चुका होता है. महाराष्‍ट्र में तुलसी सिंह राजपूत पर कई दर्जन मामले लंबित चल रहे हैं. तुलसी को मकोका में भी बुक किया जा चुका है, परन्‍तु इस मामले में चार्जशीट अभी तक दाखिल नहीं हुआ है. तुलसी के खिलाफ गुजरात-महाराष्‍ट्र के बार्डर पर स्थित धानाऊ डिविजन के तालासरी थाने में 395, 399, 420 समेत कई धाराओं में मुकदमे दर्ज हैं. पुलिस के रिकार्ड के अनुसार तुलसी पर हत्‍या की कोशिश, धोखेबाजी, मिलावटी तेल, जबरन वसूली, दंगा समेत कई धाराओं में नौ संगीन मुकदमें दर्ज हैं. इसके अतिरिक्‍त 32 अन्‍य मामले भी विभिन्‍न थानों में दर्ज हैं. तालासारी पुलिस स्‍टेशन में ही तुलसी पर दंगा और पुलिस सब इंस्‍पेक्‍टर को धमकी देने का मुकदमा भी दर्ज है. यह मुकदमा उस समय दर्ज किया गया था जब तुलसी अपने भाई राजेश श्रवण और ड्राइवर राम निवास यादव के साथ एक आदिवासी राहू कात्‍या कारपाडे की डेड बॉडी की फोटो जबरिया ले रहे थे.

धनपति बन चुके तुलसी को अब ताकत की जरूरत महसूस होने लगती है. इसके लिए तुलसी महाराष्‍ट्र में समाजवादी पार्टी से जुड़ जाते हैं, लेकिन वहां चुनावी दाल गलती नहीं दिखती है. तब तुलसी को अपने गृह जनपद की याद आती है. चंदौली को अपना कर्मभूमि बनाने के लिए जोर लगाने लगते हैं. कैली-कुरहना गांव में कई हेक्‍टेयर भूमि खरीदकर उस पर राजपूत एग्रो समूह बनाते हैं. और ऐलान होता है कि अब जिले के युवाओं को यहां रोजगार दिया जाएगा. कई लोगों ने उनके मार्कशीट जमा कराए जाते हैं. युवकों को पेंशन बांटने के वादे किए जाते हैं. अन्‍य तमाम तरह के वादे भी होते हैं. एक बड़ा धनपति देखकर जिले के तमाम लोग उनके इर्द-गिर्द सटने लगते हैं. जब पजेरो जैसी महंगी गाडि़यों का काफिला गुजरता तो लोग कौतूहल से देखते. अखबार वालों को भी अपने लिए एक नया शिकार दिखाई देने लगा. तमाम तरीकों से तुलसी को अपने जाल में फांसने के लिए चारा फेंका जाने लगा. सभी बड़े अखबार के पत्रकार तुलसी से नजदीकी बढ़ाने के लिए तमाम संपर्कों का सहारा लेने लगे.

तुलसी ने भी फंसने से पहले पत्रकारों की खूब आवाभगत की. उन्‍हें समाजवादी पार्टी से टिकट मिलने की पूरी उम्‍मीद थी. पैसे की पॉवर के बावजूद पार्टी ने तुलसी को टिकट नहीं दिया. जिसके बाद
तुलसी
पुलिस के बातचीत करते आसमानी शर्ट में तुलसी सिंह राजपूत
तुलसी सपा का दामन छोड़ दिया. कई पार्टियों में उन्‍होंने कोशिश की, लेकिन दाल कहीं नहीं गली. इस दौरान उन्‍होंने तमाम अखबारों को विज्ञापनों से उपकृत किया. पत्रकारों का व्‍यक्तिगत सेवा भी हुआ. तुलसी के पक्ष में काफी खबरें छपी पर किसी बड़ी पार्टी ने इनके अतीत को देखते हुए टिकट नहीं दिया. मजबूरी में तुलसी ने भारतीय समाज पार्टी जैसी क्षेत्रीय पार्टी का दामन थाम लिया. पार्टी ने इन्‍हें लोकसभा चुनावों के लिए अपना उम्‍मीदवार भी घोषित कर दिया. इसके बाद ही शुरू हो गया इनका और अखबारों का प्रेम. अखबारों और पत्रकारों ने इनसे पैसे कूटे और इन्‍होंने अखबारों से समाचार लूटे. हिंदुस्‍तान और जागरण इनके दास बन गए. दोनों अखबारों को 20 से 25 लाख रूपये तक के विज्ञापन मिले. जिले और बनारस के पत्रकार उपकृत हुए अलग से. कहते हैं ना कि नमक खाने के बाद आंख शर्माती है, तब से ही जिले के कथित बड़े पत्रकार आज तक तुलसी से शर्माते हैं और मजबूरी में इनके खिलाफ खबरें देने के पहले इनका पूरा ख्‍याल रखा जाता है.

लोकसभा के चुनावों में ही दैनिक जागरण और हिंदुस्‍तान ने अपनी तरफ से इन्‍हें लोकसभा में भेज दिया था. वो तो जनता ने धोखा दे दिया नहीं तो तुलसी सांसद बन गए होते. बनारस से लेकर चंदौली तक बड़े पत्रकार तुलसी से सटने के लिए हर जतन करते थे. जागरण में गांधी मठ का एकछत्र राज है, लिहाजा तुलसी की सीधी डिलिंग वहीं से होती थी. खबरें किस तरह से मेनूपुलेट करनी है इसका निर्धारण भी संपादकीय के एकमात्र केबिन से होता था. जागरण ने भी तुलसी को आंगन-आंगन का प्‍यारा बना दिया था. यहां पर विज्ञापन के अलावा भी प्‍यार-मुहब्‍बत देखने को मिला. अब भी तुलसी जागरण के छोटे यानी क्षेत्रीय प्रतिनिधियों को कुछ नहीं समझते हैं. उन्‍हें इन प्रतिनिधियों की औकात का पता है कि इनके एकबार छींकने से इन क्षेत्रीय प्रतिनिधियों की बिना सेलरी वाली नौकरी चली जाएगी. लिहाजा क्षेत्रीय प्रतिनिधि भी इनकी सेवा का पूरा ख्‍याल रखते हैं. और कोशिश करते हैं कि बाकी खबरें भले ही छूट जाएं पर तुलसी की खबरें किसी कीमत पर नहीं छूटनी चाहिए.

हिंदुस्‍तान तो जागरण से भी एक कदम आगे था. अच्‍छी खासी डिलिंग का असर साफ दिखता था. इस अखबार के जिला सर्वेसर्वा खुद तुलसी की सभाओं को कवरेज करने जाते थे. इन महोदय के लिए बाकायदा गाड़ी की अलग से व्‍यवस्‍था की गई थी. जमकर सेवा होता था इनका. यह अखबार भी जागरण की तरह बस 'तू तुलसी मेरे आंगन का' जैसे कहे अनकहे शब्‍दों से रंगा रहता था. शैलेंद्र सिंह जैसे प्रत्‍याशी की खबरें दोनों अखबारों में इधर उधर कहीं रहती थीं या दिखती ही नहीं थीं, पर तुलसी की खबर न हो यह संभव नहीं था. चुनाव के एक या दो दिन पहले हिंदुस्‍तान ने ऐसा करामात दिखाया कि आम पाठक थू-थू करने लगा था. तुलसी का ऐसा पेड न्‍यूज छपा था कि जागरूक पाठक पूरी तरह इस अखबार को कोसते दिखे  थे. काफी छीछालेदर के चलते अखबार को अगले दिन सफाई छापनी पड़ी कि यह विज्ञापन था. दोनों अखबारों में तुलसी चालीसा इनकी पुरानी कॉपियों में आसानी से देखा जा सकता है.

लोकसभा चुनाव के दौरान तो अमर उजाला से कोई डील नहीं हो सकी थी, परन्‍तु अब ये अमर उजाला के खास बन गए हैं. अखबार के ताकतवर सज्‍जन के छोटे भाई बन चुके हैं. तभी इस अखबार ने भी भाई जगताप पर हमला की खबर को इतना प्‍यार से लिखा था कि लग रहा था, सारी गलती मार खाने वाले भाई जगताप की ही है. सहारा से भी इनकी अच्‍छी खासी डील हो गई है. खबरें वही जाती हैं, जो इनको बुरी न लगे. आज की स्थिति भी कमोवेश ऐसी ही है. यानी जिले के सभी बड़े अखबार इनके गुलाम बन चुके हैं. बड़े अखबारों के किसी बड़े पत्रकार में इतनी ताकत नहीं है कि वो इनकी सच्‍चाई लिख सके. या तो पैसे से मैनेज है या फिर विज्ञापन न मिलने का डर है. यानी तुलसी मामले में सारे बड़े अखबार अपने गांडीव टांग चुके हैं.

इस मामले में भी पत्रकारों ने तुलसी का परोक्ष रूप से पूरा साथ दिया. पुलिस को भी पैसे और ताकत के बल पर मैनेज किया गया. नहीं तो आम आदमी को क्रब के अंदर से ढूंढ निकालने वाली पुलिस को लक्‍जरी गाडि़यों से चलने वाले तुलसी की भनक नहीं लगती. खबर है कि तुलसी को जमानत कराने का पूरा मौका दिया गया. इलाहाबाद हाई कोर्ट से भी जमानत लेने का पूरा प्रयास हुआ, लेकिन बात नहीं बनने पर मजबूरी में तुलसी को आत्‍म समर्पण करना पड़ा. परन्‍तु उनके शुभचिंतकों ने ऐसी राह तैयार कराई की ये आसानी के साथ कोर्ट में सरेण्‍डर कर सकें. और इसमें इनके पत्रकार भाइयों ने पूरा साथ दिया.

बनारस, इलाहाबाद, आगरा, मुरादाबाद, अलीगढ़ में अवैध प्रकाशन कर रहा है दैनिक जागरण!

: बनारस एवं इलाहाबाद के कर्ताधर्ताओं के खिलाफ कोर्ट जाने की तैयारी : देश का नम्‍बर एक अखबार यूपी में चार सौ बीसी के साथ प्रेस रजिस्‍ट्रेशन ऑफ बुक्‍स एक्‍ट की कई धाराओं के खुले आम उल्‍लंघन में बुरी तरह फंसता दिख रहा है. इस अखबार के छह यूनिटों को छोड़कर बाकी सारे एडिशन किसी ना किसी तरीके से फर्जी हैं. यह बात सामने आई है आरटीआई से मिली सूचना के आधार पर. आरटीआई की सूचना से पता चला है कि दैनिक जागरण के बनारस, इलाहाबाद, मुरादा‍बाद, आगरा, अलीगढ़, नोएडा एडिशनों का प्रकाशन गलत नामों पर हो रहा है. क्‍योंकि आरएनआई की जानकारी में जागरण पब्लिकेशन के अंतर्गत इन एडिशनों का नाम नहीं है.

यानी अगर जागरण के आधा दर्जन एडिशन सही रजिस्‍ट्रेशन पर प्रकाशित हो रहे हैं तो आधा दर्जन एडिशनों को सरकार तथा आरएनआई के आंखों में धूल झोंककर प्रकाशित किया जा रहा है. सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर इन आधा दर्जन जगहों के अखबार जागरण प्रकाशन के बैनर तले रजिस्‍टर्ड नहीं हैं तो ये किस आधार पर दैनिक जागरण के नाम से अखबार का प्रकाशन कर रहे हैं. सबसे बड़ा फर्जीवाड़ा बनारस यूनिट में दिख रहा है क्‍योंकि यह अखबार इस नाम से रजिस्‍टर्ड न होते हुए भी बनारस तथा इलाहाबाद से दैनिक जागरण के नाम से प्रकाशित हो रहा है.

आरटीआई को आधार माना जाए तो यह अखबार इन आधा दर्जन यूनिटों पर बिना दैनिक जागरण नाम से रजिस्‍ट्रेशन के प्रकाशित हो रहा है. इस तरह से यह अखबार पिछले कई दशकों में इन आधा दर्जन यूनिटों से अरबों का सरकारी तथा पब्लिक विज्ञापन का राजस्‍व वसूल चुका होगा. यानी अगर इसकी जांच की जाए तो शायद देश का सबसे बड़ा घोटाला सामने आएगा. वरिष्‍ठ अधिवक्‍ता काशी प्रसाद का कहना है कि इस तरह से किसी और नाम से रजिस्‍ट्रेशन के बाद दूसरे नाम से अखबार का प्रकाशन बिल्‍कुल चार सौ बीसी का मामला है. इसकी जांच कराई जाएगी तो अखबार से जुड़े तमाम लोग जेल के अंदर नजर आएंगे, साथ ही एक बड़े घोटाले का पर्दाफाश होगा.

जबकि आरटीआई एक्टिविस्‍ट और अधिवक्‍ता कृष्‍णा प्रसाद का कहना है कि एक जगह से अखबार का रजिस्‍ट्रेशन कराकर उसमें किसी भी प्रकार का बदलाव गलत है. परन्‍तु दैनिक जागरण तथा हिंदुस्‍तान जैसे अखबार मात्र एक स्‍थान से रजिस्‍ट्रेशन कराकर अपने कई सब एडिशन प्रकाशित कर रहे हैं, जो प्रेस एण्ड रजिस्ट्रेशन आफ बुक्स एक्ट् -1867 की धाराएं 8(बी), 14/15 के अनुसार सही नहीं है. अगर इन मामलों की शिकायत की जाए तो इस तरह की गड़बड़ी करने वाले कई लोग जेल में होंगे. इधर, सूत्रों से पता चला है कि दैनिक जागरण के इसी फर्जीवाड़े को लेकर बनारस यूनिट के खिलाफ मामला दर्ज कराए जाने की तैयारी की जा रही है.

इस बारे में बताया जा रहा है कि बनारस में दैनिक जागरण अवैध तरीके से नौ जिलों में अपने ए‍डिशनों का प्रकाशन कर रहा है. इसके अलावा इलाहाबाद में भी कई जिलों में अवैध प्रकाशन किया जा रहा है. बिना रजिस्‍ट्रेशन के इन सभी जिलों में अखबार के नए संस्‍करण रोज प्रकाशित किए जा रहे हैं. बताया जा रहा है कि इसमें संपादक संजय गुप्‍ता, स्‍थानीय संपादक वीरेंद्र कुमार, बनारस के जीएम अंकुर चड्ढा, इलाहाबाद के जीएम गोविंद श्रीवास्‍तव समेत कई वरिष्‍ठों तथा सभी जिलों के प्रभारियों के खिलाफ कोर्ट में जाने की तैयारी की जा रही है. रमन कुमार का कहना है कि इस मामले में कई लोग उनके संपर्क में हैं, जो केस करने से पहले सारी जानकारी तथा सबूत पुख्‍ता कर लेना चाहते हैं. गौरतलब है कि रमन कुमार ने इसी आधार पर जागरण के कई निदेशकों के खिलाफ चारसौबीसी समेत पीआरबी एक्‍ट के तहत बिहार में मामला दर्ज कर रखा है, जिसके चलते निदेशकों में हड़कम्‍प मचा हुआ है.

बुधवार, 15 सितंबर 2010

मैं भी भड़ासी बन गया

आज मैं भी भड़ास का सदस्‍य बन गया. वर्षों पुरानी इच्‍छा आज पूरी हो गई.

अनिल

सोमवार, 23 अगस्त 2010

भ्रष्‍टाचार को मिले कानूनी मान्‍यता !

मैं दुखी हूं. मेरा पड़ोसी भी दुखी है. दुखी इसलिए हैं कि खेल हो रहा है. मामला तो एक है पर हमारे दुख के कारण अलग अलग हैं. कॉमनवेल्‍थ खेल को लेकर जिस तरह का नोचा नोची शुरू हुई है, उससे देश के लोग भी बहुत दुखी हैं. जाहिर सी बात है, देश में बड़ा खेल हो रहा है तो ऐसा खेल होना ही था. इतने बड़े खेल की आशंका किसी को नहीं थी, जितना बड़ा इस खेल को बना दिया गया है. वैसे भी इस तरह के बड़े आयोजन खेल करने के लिए ही किए जाते हैं. टाइम से सारी तैयारियां हो जाती तो फिर खेल का मतलब ही क्‍या? अतिरिक्‍त टाइम में ही तो खेल में असली रोमांच आता है. देश में खेलों के साथ खेल काफी पहले से होता आ रहा है, तब कभी भी हमने भौं-भौं नहीं की. अब कुछ 'अरबों' का 'खेल' हो गया तो काफी लोग खेलने और काटने की कोशिश में लग गए हैं.

अब अपने सुरेश कलमाड़ी और उनकी टीम ने कॉमन लोगों के वेल्‍थ के साथ थोड़ा सा खेल क्‍या कर दिया, सबलोग पूरी टीम को 'सुरसा' की तरह मुंह खोलकर 'काला पाणी' की सजा देने की थुथुनजोरी करने लगे हैं. आखिर क्‍या रखा है इसमें, अरे जांच होने से रही, अगर जांच हुई भी तो रिपोर्ट आने से पहले बेचारे कितने भगवान को प्‍यारे हो चुके होंगे. अपने देश में घोटाला कोई हल्‍ला करने जैसी बात नहीं है. कितने घोटाले हुए, क्‍या बिगाड़ लिया किसी ने. इसलिए शांति के साथ दूसरे खेलों के बारे में सुनने व जानने की तैयारी करनी चाहिए.
 
वैसे चर्चा कुछ दुखी लोगों की हो रही थी. कुछ लोगों के दुख का कारण हैं कि इस खेल के खेल में उन्‍हें कोई फायदा नहीं हुआ. जबकि कई ऐसे लोग हैं जो इसलिए दुखी हैं कि इस खेल के खेल में उनके दुश्‍मनों का खेल बढि़या हो गया. कुछ इसलिए परेशान हैं कि उनका भी खेल हो जाता तो कॉमन लोगों का वेल्‍थ उनकी हेल्‍थ सुधार देता. एक फीसदी ऐसे लोग हैं जो खेल का खेल करने वाले विभाग में अधिकारी नहीं है, वे अपने किस्‍मत को कोस रहे हैं, क्‍यों नहीं मैं एमसीडी, सीपीडब्‍ल्‍यूडी, पीडब्‍ल्‍यूडी, एनडीएमसी, आयोजन समिति या ऐसे ही किसी विभाग का अधिकारी या कर्मचारी बन पाया. एक ही फीसदी ऐसे लोग हैं, जो बेचारे माइक-आईडी और कलम-कॉपी लेकर घूम रहे हैं, तिहाई इस उम्‍मीद में कि इस खेल से हमारे खेलने खाने के दिन बहुरे, शेष इसलिए कि उनका नाम सुधरे. कुछ फीसदी लोग इसलिए परेशान हैं कि जहां देखों वहीं खेल के बारे में तमाम तरह के खेल खेले जा रहे हैं. अठारह फीसदी इसलिए परेशान हैं कि झूठ में इतना हल्‍ला मचाया जा रहा है और जांच की बात की जा रही है, जबकि जांच के आंच से ना तो आज और ना ही कल कुछ पकना है. बीरबल की खिचड़ी शायद पहले पक जाए. और लगभग सत्‍तर प्रतिशत बेचारे खाने कमाने और महंगाई से लड़ने में परेशान हैं तो फिर आप कोई खेल करते रहो क्‍या फर्क पड़ता है!

कॉमनवेल्‍थ खेल के साथ हुआ खेल देखने के बाद मेरे मन में एक विचार आया है. क्‍यों न हम देश में भ्रष्‍टाचार को कानूनी मान्‍यता देने के लिए लड़ाई लड़ें. हम तो कहते हैं कि घोटालों को कानूनी मान्‍यता मिलनी चाहिए. अब तक देश ने इस विधा में जितनी काबिलेतारीफ प्रगति की है, उससे घोटालों का हक बनता है कि उन्‍हें कानूनी बनाया जाय और घोटालेबाजों का सम्‍मान किया जाय. घोटालेबाजों के लिए तमाम पुरस्‍कार रखें जाए. एक बात और कि इन पुरस्‍कारों में सेटिंग गेटिंग नहीं होनी चाहिए. जैसा कि तमाम भूषण और श्री जैसे पुरस्‍कारों के साथ होता रहा है! भ्रष्‍टाचार और घोटालों में भी अगड़ा, पिछड़ा, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का कोटा बनाया जाना चाहिए. इसमें अल्‍पसंख्‍यक और बहुसंख्‍यक श्रेणी भी होनी चाहिए. नेता लोगों को अल्‍पसंख्‍यक श्रेणी में और आम जनता को बहुसंख्‍यक श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिए. अधिकारियों को पिछड़ा श्रेणी, सरकारी कर्मचारियों को अनुसूचित श्रेणी में रिजर्वेशन दिया जाना चाहिए. अगड़ा श्रेणी आम जनता के लिए सुरक्षित किया जाना चाहिए. सीबीआई जैसी संस्‍था को खतम करके ऐसी जांच एजेंसी का गठन किया जाना चाहिए जो बड़े से बड़े ईमानदारों को पकड़ कर सजा दिलवाए. सीबीआई भले बड़े बेईमानों को सजा दिला पाने में अक्षम रही हो पर उम्‍मीद है कि नई संस्‍था अपना कार्य कुशलता से कर सकेगी.
 
किसी ने चारा खाया, किसी ने अलकतरा खाया, किसी ने पूरी सड़क ही खा ली, कोई स्‍टाम्‍प डकार गया, किसी ने शेयर खाए, कोई पेड न्‍यूज खा रहा है, कोई ताबूत खा गया, कोई बाढ़ राहत खा गया, कोई जमीन खा गया, किसी ने सरकार संभालने-गिराने के लिए धन खा लिया, कोई टेलीफोन खाया, किसी ने शराब खाया, कोई यमुना एक्‍सप्रेस वे खा गया, तो कोई आय से अधिक धन खा गया, कमीशन तो ईमानदारी से लोग खाते ही रहते हैं. इतना खाने के बाद भी कहां कोई अनपच हुआ...? सब मिल बांटकर पचा लिया गया. आम जनता तो बेचारी खिलाने में ही परेशान रहती है, क्‍लर्क को खिलाया, अफसर को खिलाया, पुलिस को खिलाया, नेता को खिलाया, दलाल को खिलाया. इससे जाहिर होता है कि खाना और खिलाना अलग अलग समूह है. इसलिए दोनों को बराबरी का दर्जा देने के लिए एक बराबर कानून बनाया जाय. सीबीआई बेचारी आज तक खाने वाले समूह को नहीं पकड़ पाई, जब भी पकड़ा खिलाने वाले समूह को ही पकड़ा. इसलिए हम सीबीआई की जगह ऐसी संस्‍था बनवाने की बात कर रहे हैं, जो सिर्फ ईमानदार लोगों के खिलाफ जांच करे. ऐसी संस्‍था के पास सफलता की गारंटी होगी.
 
भ्रष्‍टाचार बढ़ाने के लिए सख्‍त से सख्‍त कानून बनाया जाए. हालांकि इसके लिए ज्‍यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी, क्‍योंकि इसके जैसी तरक्‍की देश में किसी और की नहीं हुई है. इस बारे में मेरे कुछ स‌ुझाव हैं... ईमानदारी को गैर जमानती धाराओं में शामिल किया जाए. जो भी व्‍यक्ति ईमानदारी में लिप्‍त पाया जाए, उसे बिना वारंट गिरफ्तार करने का अधिकार होम गार्ड तक को दिया जाए. स्विस बैंक में धन जमा करने को कानूनी बनाया जाए. जिनका स्विस बैंक में पैसा जमा हो उन्‍हें सरकार की तरफ से तमाम सुविधाएं प्रदान की जाए. जो भ्रष्‍टाचार की श्रेणी में पिछड़ा या दलित हों उन्‍हें नियमानुसार आरक्षण दिया जाए. अल्‍पसंख्‍यक भ्रष्‍टाचारियों के लिए विशेष सुविधाएं प्रदान की जाए. इस तरह के प्रावधानों को मान्‍य किया गया तो मुझे पूरी उम्‍मीद है कि देश में गरीबी भी नहीं रहेगी. भ्रष्‍टाचार की राष्‍ट्रीय योजना लागू होने के बाद कोई गरीब नहीं बचेगा. जब वो बचेगा ही नहीं तो फिर गरीबी कहां रहेगी?
 
रही बात खेल की तो, पहले भी हमने काफी खेल देखे हैं. हॉकी में खेल देखा, बैडमिंटन में खेल देखा, क्रिकेट में भी देखा, और बहुत से खेलों में भी खेल देखा. मेरा यह भी स‌ुझाव है कि खेल संस्‍थाओं के शीर्ष पदों को नेताओं की बपौती घोषित कर दी जानी चाहिए. जिस तरह से एक-एक संस्‍था पर कई वर्षों से नेता जी लोग काबिज हैं उसे देखते हुए उनके मरने के बाद (क्‍योंकि जीते जी तो वो हटेंगे नहीं) उनके पुत्रों या पुत्रियों को ही उस खेल संस्‍था का पदाधिकारी बनाया जाए. हम पहले भी मानते रहे हैं कि खेल में पदक नहीं बल्कि भाग लेना सबसे महत्‍वपूर्ण होता है. तो हमारा मानना है कि सभी संगठनों को नेताओं के हवाले करके खिलाड़ियों और देशवासियों को भाग लेना चाहिए. खिलाड़ी खेलों का भला नहीं कर सकते. उन्‍हें कहां वह खेल आता है जो हमारे नेताओं को खेलना आता है? राजनीति की तरह खेल संस्‍थाओं के वरिष्‍ठ पदों के लिए भी आयु सीमा का कोई प्रावधान नहीं होना चाहिए. कब्र में पांव लटकने तक नेताओं को शीर्ष पद पर रहने का अधिकार प्रदान किया जाना चाहिए. आखिर खेल है तो खेल होना भी तो चाहिए. जय खेल जय खिलाड़ी !!!

मंगलवार, 4 मई 2010

जनसरोकार की ख़बरों की तरफ मुड़ेगी ख़बरिया चैनलों की राह?

क्या सही दिशा में जा रही है ख़बरिया चैनलों की राह? क्या आम सरोकार की ख़बरें चैनलों से गायब हो रही हैं? ऐसे कई सवाल हैं जो आम लोगों से लेकर पत्रकार, बुद्विजीवियों के मन में अक्सर उठते रहते हैं। ऐसा इसलिये है कि ख़बरिया चैनल अब आम लोगों से जुड़ी ख़बरों को अपने रन में जगह देने के बजाय भूत प्रेत और धरती पलटने जैसी ख़बरों को ज्यादा प्राथमिकता दे रहे हैं। अगर महानगर में कोई फैशन शो चल रहा है तो उसी दौरान देश के किसी गांव में किसान की आत्महत्या की ख़बर इनके लिये कोई मायने नहीं रखती हैं। उनके लिये कर्ज़ में डूबे किसान की आत्महत्या कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, लेकिन करीना ने टैटू बनवा लिया है तो बहुत बड़ी ख़बर बन जाती है। पिछिले कुछ दिनों की ख़बरों पर ही नजर डालें तो ख़बरिया चैनल जनसरोकार से जुड़े मामलों को छोड़कर लोगों के व्यक्तिगत जिंदगी में जरूरत से ज्यादा ताक झांक करते नज़र आते हैं। जिस तरह से सानिया मिर्जा के निकाह के प्रकरण को चैनलों ने तूल दिया अपने रिपोर्टरों को घंटों सानिया के घर के सामने खड़ा रहने को मजबूर किया, वो साफ दिखाता है कि टीवी पत्रकारिता कि दशा और दिशा किस ओर है। इसी दौरान अरबों रुपये के लागत से तैयार पीएसएलवी थ्री के असफल होने की ख़बर को कोई महत्व नहीं दिया गया। इस बहुउद्देशीय प्रोजेक्ट से पूरे देश को क्या फायदा होने वाला था, इसकी असफलता से देश को कितना नुकसान हुआ? कितने लोगों की मेहनत इस प्रोजेक्ट को बनाने में लगी थी, उनको इसकी असफलता से कितना दुख पहुंचा? इस तरह की ख़बर किसी भी ख़बरिया चैनल पर नहीं दिखाई पड़ी। जबकि सानिया मिर्जा की शोएब के साथ निकाह करने के बयान से लेकर उसकी सगाई तक की ख़बर हेडलाइंस में दिखी। और तो और कई चैनलों पर तो सानिया की मेहंदी तक ब्रेकिंग न्यूज़ के तौर पर चलाये गये।


अख़बारों पर जनसरोकार की ख़बरें ना लिखने का आरोप लगाने वाले ख़बरिया चैनल अब खुद उस राह की ओर मुड़ गये हैं। जबकि इधर, तमाम अख़बारों के तहसील स्तर पर कार्यालय खुलने के बाद वे पहले से ज्यादा आम सरोकार की ख़बरों को अपने पन्नों पर जगह दे रहे हैं। उनके पन्नों पर अब गली, नाली, खंडंजा से लेकर नहर, पानी, किसान और आम आदमी को जगह मिल रही है। जबकि ख़बरिया चैनलों से आम आदमी लगातार गायब होता जा रहा है। कुकुरमुत्तों की तरह उग आये छोटे छोटे ख़बरिया चैनलों ने स्थिति और ज्यादा ख़राब कर रखा है। इन चैनलों में ना तो वर्किंग माहौल दिखता है, ना तो इनके कांसेप्ट में ही कुछ नयापन की झलक मिलती है। अख़बार के दफ्तरों में अपेक्षाकृत स्थितियां ज्यादा बेहतर हैं। जबकि ख़बरिया चैनलों में छोटे स्तर से लेकर बड़े स्तर तक के लोग ख़बरों पर दिमाग लगाने के बजाय एक दूसरे को निपटाने में ही अपनी सारी ऊर्जा व्यय करते हैं। इस स्थिति में ख़बरों को लेकर जो चर्चा होनी चाहिए नहीं हो पाती हैं। टीआरपी के फंडा ने इस स्थिति को और अधिक बदहाल कर रखा है। व्यूअर रीडर का ये डब्बा सिर्फ कुछ शहरों के दर्शकों की बदौलत चैनलों की टीआरपी तय करता है। जबकि उभरते भारत के असंख्य कस्बाई और ग्रामीण दर्शक इस डिब्बे की जद से बाहर रहते हैं, यानी तार्किक और वैज्ञानिक ना होते हुए भी टीआरपी का यह डब्बा चैनलों का बाज़ार तय करता है। और इस पर विश्वास करते हैं खुद को बुद्घिजीवी कहने वाले पत्रकार और मैनेजमेंट के पढ़े लिखे लोग।

ख़बरों के बदलते रंग रूप और जनसरोकार से दूर होते ख़बरिया चैनलों के शीर्ष पर बैठे लोग इन बातों को लेकर अक्सर विधवा विलाप करते रहते हैं। अख़बारों के संपादकीय पेज पर बड़े बड़े कॉलम में सुधारों और जन सरोकारों के साथ जुड़ने की बात दुहराते हैं। लेकिन जब इनको लागू करने की बात आती है तो सारा का सारा विधवा विलाप छूमंतर हो जाता है। फिर वे अपने पुराने ढर्रे पर लौट कर भूत प्रेत के साथ मिलकर दुनिया उलटने पलटने लगते हैं। किसी को रावण का विमान मिलता है तो कोई महलों में आत्मा खोजने-ढूंढने में लग जाता है। ख़बरिया चैनलों को आम आदमी की समस्या, किसानों की समस्या, छोटी बड़ी खोज या छोटे स्तर पर लोगों की जीवन को सुलभ बनाने वाले आविष्कार नज़र नहीं आते हैं। लेकिन शाह रुख का कुत्ता बीमार पड़ गया तो चैनलों के लिये यह बड़ी ख़बर बन जाती है। महंगाई से आम आदमी दाना-पानी के लिये परेशान है, इसकी ख़बरे कम दिखती हैं, फैशन शो में कपड़े कितने महंगे हैं यह ख़बर लीड बन जाती है। ख़बरिया चैनल के शीर्षस्थ लोग इसमें बदलाव की बात तो करते हैं परन्तु उनकी चाहत होती है कि ये बदलाव लाने वाला भगत सिंह पड़ोस के चैनल में पैदा हो। ख़बरों के बिगड़ने के कारण तो कई हैं, जिनपर चर्चा की जा सकती है। परन्तु यहां भेड़ चाल में चलने की परम्परा पुरानी होती जा रही है। जैसे मनोरंजन चैनल सास-बहू के साजिशों से उबरे तो अब कस्बाई मानसिकता को पकड़ कर आगे बढ़ रहे हैं। यानी बदलाव की बयार के बाद भी भेड़चाल। कुछ ऐसी ही स्थिति ख़बरिया चैनलों की है। किसी एक चैनल पर कोई कार्यक्रम हिट हुआ नहीं कि उस ढर्रे पर दर्जनों चैनल चलने लगते हैं। इसके अलावा ख़बरिया चैनलों की खास लोगों की निजी जिंदगी में ताक झांक भी ज्यादा बढ़ गई है। कई ख़बरिया चैनल कुछ मामलों पर तो जज बनकर खुद ही फैसला सुनाने लग जाते हैं। ऐसी लगातार बढ़ रही प्रवृत्ति ने आम लोगों के मन में ना सिर्फ ख़बरिया चैनलों के प्रति विश्वास कम किया है बल्कि इन ख़बरों को देखकर लोगों का मन भी खट्ठा हो रहा है।

क्या अब ख़बरिया चैनल अपना चोला बदलने की पहल करेंगे? क्या अब ख़बरिया चैनलों में जन सरोकार की ख़बरे देखने को मिलेंगी? क्या पत्रकारिता की गर्विली परम्परा का सुनहरा दौर वापस आयेगा? ऐसे कई सवालों का जवाब मिल पाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि जनससरोकार से जुड़ने के लिये ना सिर्फ ख़बरों को सूंघने-समझने और पहचानने की क्षमता होनी चाहिए वरन टीआरपी जैसे बाजारू दबाव को झेलने की ताकत भी। लेकिन ज्यादातर चैनलों में जो सबसे बड़ी दिक्कत है वो है पत्रकारों की जमात। ख़बरिया चैनल ज्यादातर सुंदर चेहरों को मौका प्रदान करते हैं, प्रतिभा बाद की मानक होती है। भागती दुनिया में ख़बरिया चैनलों के भीतर पकने वाली खिचड़ी आज किसी से छिपी नहीं है। यहां पसरी गंदगी अंदर का स्वाद तो ख़राब करती है बाहर के लोगों का मन भी कसैला करती है। प्रतिभावान लोगों के लिये चैनलों में जगह कम है, ज्यादातर काम इंटर्न या फिर ट्रेनी करते हैं, इन्हें कम पैसा जो देना होता है। ऐसे में प्रतिभावन लोग की जगह रंगीन चेहरे व कम अनुभवी पत्रकारों के साथ टीआरपी का डब्बा और बाजार का दबाव होगा तो बदलाव कैसे होगा समझना मुश्किल नही है। यानी ख़बरों की ये दुनिया ना तो ठीक से कारपोरेट कल्चर को आत्मसात कर सकी है और ना ही पूर्ण रुप से पत्रकारिता को। ऐसे में क्या हम ख़बरिया चैनलों से उम्मीद कर सकते हैं कि हमें निकट भविष्य में जनसरोकारों की ख़बर देखने को मिल सकती है! है इसका जवाब किसी ख़बरिया पुरोधा के पास?