रविवार, 2 जून 2013
मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013
मेरे किस्मत में सितारे कहां थे?
यादों के चेहरे पर पड़ती झुर्रियों के बीच मन कुछ सोचने बैठा है कि उस 11 दिसम्बर की रात मैं क्या कर रहा था... यूं भूला तो कुछ भी नहीं है, पर जेहन के किसी हिस्से में एक धुंधली पड़ती जा रही तस्वीर खामोशी के साथ उभरती है. वक्त के थपेड़ों और समय की धूल भरी मोटी परतें जमने के बाद भी वो र्दद में डूबी यादें अब कहीं ज्यादा चुभती हैं. नश्तर सी रूह को भीतर तक छील देती है. मैं तो खामोखां एक टूट रहे सपने के साथ ही तो जमुना की धारा को धीरे धीरे उस ट्रेन में बैठकर पार किया था. उस पल सारी उम्मीदें भी तो सरस्वती की तरह आंखों से ओझल हो चुकी थीं, तभी तो गंगा-जमुना के इस संगमनगरी में कभी संगम ना हो सकने के गम को लेकर पहुंचा था.
नई उम्मीद की कोपलें भी तो फूटने से इनकार करने लगी थीं. मेरी खामोश आंखों को दिलीप भी तो नहीं पढ़ पाया था. उसे भी कहां पता था कि आंखों के भीतर गंगा-जमुना के संगम का नहीं बल्कि समुंदर के खारे पानी के सोते बाहर निकले को मचल रहे थे. आंखों और मन के सरगोशियों को मेरे अलावा कहां वो भी समझ पाएं होंगे. उनकी दुनिया तो रोशनी की तरंगों में डूबने-उतराने को तैयार थी. सूरज को निगलने की कोशिश में वो शाम भी तो कितनी बेचैन थी. शायद मुझसे भी कहीं ज्यादा. आखिर रात तो मेरे भी हिस्से में आने को ही मचल रहा था. दिलीप के उस किराए के कमरे में मेरे और उसके अलावा कोई और भी तो था. मेरी तनहाइयों ने कहां मुझे अकेला छोड़ा था.
बाहर की सर्द रात ने तो खून भी जमा दिया था, लेकिन मैं अंदर पसीने से भीगा हुआ, करवटें बदलता रहा, पर नींद के आ जाने का इंतजार कहां खत्म हुआ था. नींद से ही नाकामी का रिश्ता कहां था, नाकाम तो जिंदगी से भी हुआ था उस रात. यह तो बस अधूरे सफर का रिश्ता था, जो रात के अंधेरों में और गहरा होता चला गया था. शायद तुमसे आखिरी बार भी नहीं मिल पाने दर्द भी इस रात में जुस्तजू था. आखों के कोर तो तकिए को भीगो दिया था, पर दिल कहां खुल कर आंखों के रास्ते अपनी बात कह पा रहा था. घुट ही तो रहा था उस रात एक टूटा हुआ सपना. पर सुबह उस ध्वस्त हो चुके सपनों के बाद भी मैंने वो दौड़ तो जीत ही ली थी, वो गोला फेंक ही तो लिया था उतनी दूर, पर शायद जो सितारे किस्मत से जा चुके थे उन्हें कहां मेरे कंधों पर टंकना था. शायद किस्मत ने स्टार से नाता ही तोड़ दिया था.
सिर्फ जिंदगी की परीक्षा में ही तो फेल नहीं हुआ था, स्टार पाने की परीक्षा में भी तो नम्बर नहीं मिले थे. तुम्हें गए दशक से ज्यादा का वक्त बीत चुका है. इस बीच हजारों उदास रातें, सुबकते दिन भी तो यूं ही बीते हैं. अनगिनत घंटे में अनगिनत सपने भी तो टूट कर बिखरे हैं. तुम तो ना जाने इस सालों कितना आगे जा चुके होगे.. पर मैं कहां जा पाया.. बस आज भी वहीं हूं. हां इस सालों में सांवला रंग थोड़ा और गहरा हो गया है...बिल्कुल काली रातों की तरह. इन गुजरे सालों में बहुत कुछ भूल चुका है, बस तुम ही नहीं भूल पाए. हर शै के साथ, जब भी जिंदगी के सफहे उलटता-पलटता रहा तुम्हारी यादों की पुरवाई वैसे ही ताजा हवा का झोंका बनकर दिल को राहत दे जाता रहा. एक-एक लम्हा आंखों के सामने से यूं गुजरता, जैसे किताब का पन्ना. हां, कल की ही तो बात लगती है, जब मेरे सवालों का तुमने जवाब नहीं दिया था. शायद तुम जवाब देना भी नहीं चाहते थे. मेरे जैसे मेरे सवाल भी तो तुम्हें कहां पसंद थे कभी. अब शायद और नापसंद हो गए होंगे.
वो मैं ही तो था, जो बेमकसद के ख्यालों में मसरुफ रहा करता था. दिसम्बर की उस घटाटोप रात के हादसे के बाद तो मेरी नीम बेहोशी और ज्यादा बढ़ गई थी. मेरे पास कोई जादुई चिराग भी तो नहीं था. सच कहूं तो मेरे सवाल छलावे नहीं थे, वो तो बस सवाल थे जिंदगी के, सवाल थे मेरे पसंदगी के. तुम तो नहीं समझ सके थे, पर शायद उस बेजुबान को मेरी बात समझ में आ गई थी, जो मेरे हाथों से खेल लिया करता था... शायद उसे पता था कि मेरा प्यार कोई नुमाइश नहीं है. इस दशक में बदले मौसम में तुम भी तो कितना बदल चुके होओगे. मेरी बातें भी तो अब तुम्हें याद नहीं होंगी. शायद मेरी बातें तुम्हारे लिए बेससब होंगी. तुम्हारी दुनिया तो पता नहीं कितना आगे.. कितने पड़ावों को पार कर चुकी होगी. मैं इस रेत के महल बनाते हुए ना जाने क्या सोच रहा हूं.. वहीं बैठा बैठा, जहां तुम दशकों पहले छोड़ गए थे. छोड़ भी कहां गए थे.. तुमने तो अपनाया ही नहीं था. हां शायद मेरे कंधों पर सितारे जो नहीं थे. हां.. किस्मत में भी तो नहीं थे.
बुधवार, 9 जनवरी 2013
तुमसे दूर
तेरे पहलू में अब मेरी दुनिया नहीं है
नजरों ने तेरी कुछ ऐसी बात कही है
तुम मेरे अदब को मजबूरी समझ बैठे
वो बन गया झूठ जो बात तब से सही है
खामोश थे लव अब तक पता नहीं क्यूं
अब जाकर तो हमने कुछ बात कही है
अगर तुम समझते हो खुद को खुदा
तो हम भी तुमसे जरा भी कम नहीं हैं
तुम्हें अपनी अदाओं पर होगा घमंड
हमें तो अपने इरादों पर बहुत फख्र है
तुम बदल गए जमाने की रफ्तार में
आदतों में जहां थे तब, आज भी वहीं हैं
नजरों ने तेरी कुछ ऐसी बात कही है
तुम मेरे अदब को मजबूरी समझ बैठे
वो बन गया झूठ जो बात तब से सही है
खामोश थे लव अब तक पता नहीं क्यूं
अब जाकर तो हमने कुछ बात कही है
अगर तुम समझते हो खुद को खुदा
तो हम भी तुमसे जरा भी कम नहीं हैं
तुम्हें अपनी अदाओं पर होगा घमंड
हमें तो अपने इरादों पर बहुत फख्र है
तुम बदल गए जमाने की रफ्तार में
आदतों में जहां थे तब, आज भी वहीं हैं
यादें
यादों की शाम कहीं ना ढल जाए
चांद की सूरत-सीरत ना बदल जाए
चांदनी ना बन जाए पांवों की बेडि़यां
चल यहां से कहीं दूर निकल जाएं
तस्वीर देख कहीं मन ना मचल जाए
रिश्तों पर जमी बर्फ ना पिघल जाए
पिला दो पैमाने मयखाने में
बेहोश होने से पहले जरा हम संभल जाएं
जिंदगी किसी के साथ देखना ना खल जाए
बरबाद सपने इरादों में ना पल जाए
हमें भी एक झूठी कहानी सुना दे दोस्त
शायद मेरा भी मन थोड़ा बहल जाए..
चांद की सूरत-सीरत ना बदल जाए
चांदनी ना बन जाए पांवों की बेडि़यां
चल यहां से कहीं दूर निकल जाएं
तस्वीर देख कहीं मन ना मचल जाए
रिश्तों पर जमी बर्फ ना पिघल जाए
पिला दो पैमाने मयखाने में
बेहोश होने से पहले जरा हम संभल जाएं
जिंदगी किसी के साथ देखना ना खल जाए
बरबाद सपने इरादों में ना पल जाए
हमें भी एक झूठी कहानी सुना दे दोस्त
शायद मेरा भी मन थोड़ा बहल जाए..
शहर का बदलाव
उम्मीदों भरी एक टोकरी लेकर
अरमानों के रथ पर हुआ था सवार
मां से भी तो लिया था आशीष
तभी तो निकल पाया था अपने गांव से
सोचा था वो अभी भी अपने जैसे होंगे
शहर आए वक्त ही कितना बीता था
वो तो गांव से दूर हुए थे मजबूरी में
वो दूर कहां हुए थे मेरे दिल की छांव से
पर शहर क्या रिश्तों को भूल जाता है
ये सवाल अब भी तो मेरी समझ में नहीं आता है
फिर बचपन के वादे क्यों नहीं आए उन्हें याद
क्यों यादों को मार दी ठोकर खुद अपने पांव से
हमें गम तो उस ठोकर का भी नहीं
हमें तो उनके बदल जाने का भी दर्द नहीं
हम तो परेशान हैं उनकी आंखों की चुप्पी से
गूंगा हरिया भी तो खुश होता था उनकी कांव कांव से.
अरमानों के रथ पर हुआ था सवार
मां से भी तो लिया था आशीष
तभी तो निकल पाया था अपने गांव से
सोचा था वो अभी भी अपने जैसे होंगे
शहर आए वक्त ही कितना बीता था
वो तो गांव से दूर हुए थे मजबूरी में
वो दूर कहां हुए थे मेरे दिल की छांव से
पर शहर क्या रिश्तों को भूल जाता है
ये सवाल अब भी तो मेरी समझ में नहीं आता है
फिर बचपन के वादे क्यों नहीं आए उन्हें याद
क्यों यादों को मार दी ठोकर खुद अपने पांव से
हमें गम तो उस ठोकर का भी नहीं
हमें तो उनके बदल जाने का भी दर्द नहीं
हम तो परेशान हैं उनकी आंखों की चुप्पी से
गूंगा हरिया भी तो खुश होता था उनकी कांव कांव से.
अस्थिर राजनीति के लिए अभिशप्त झारखंड
ठंड में झारखंड का सियासी पारा गरम हो गया है. झटका खाने की आदती हो चुकी भाजपा के हाथ से गुरुजी ने एक बार फिर झारखंड की कुर्सी खींच ली है. जिस जोड़ तोड़ के बल पर भाजपा ने झारखंड में अपनी सरकार बनाई थी, उसी समीकरण ने उसे जमीन पर ला पटका है. झारखंड मुक्ति मोर्चा के समर्थन वापसी के बाद मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने राज्यपाल को इस्तीफा सौंप दिया है. इसके अलावा उनके पास कोई चारा भी नहीं था. अन्य दलों के लिए अछूत भाजपा की सरकार के पास इतना संख्या बल भी नहीं है कि उन्हें जोड़-तोड़ कर अपनी सरकार बचा सके. राजनीतिक अस्थिरता के लिए कुख्यात झारखंड पिछले बारह वर्षों में आठ राजनीतिक सरकारें और दो राष्ट्रपति शासन के दौर देखने के बाद ग्यारहवी बार सत्ता परिवर्तन का शिकार बना है.
नवम्बर 2000 में केंद्र में भाजपा शासित एनडीए ने तीन राज्यों का गठन किया था. पर तीनों राज्यों के भाग्य एक जैसे साबित नहीं हुए. छत्तीसगढ़ की जनता ने राज्य में एक ही सरकार बनाकर स्थिरता की मिसाल कायम की तो उत्तराखंड ने हर पांचवें साल सरकार बदल कर राजनीतिक परिपक्वता का उदाहरण पेश किया, पर झारखंड अपनी राजनीतिक अस्थिरता के लिए कुख्यात हुआ. बारह साल और ग्यारह सत्ता परिवर्तन, अजीब दास्तान बन गई है झारखंड में राजनीतिक अस्थिरता. तीन बार अर्जुन मुंडा, तीन बार शिबू सोरेन तथा एक-एक बार बाबूलाल मरांडी तथा मधु कोड़ा ने भी झारखंड पर राज किया. दो बार राष्ट्रपति शासन के सहारे राज्य का कामकाज चला. ये झारखंड की राजनीतिक अस्थिरता का ही असर रहा कि राज्य में एक निर्दलीय विधायक मुख्यमंत्री बनकर रिकार्ड कायम किया.
शिबू सोरेन यानी गुरुजी के भाजपा से समर्थन वापस लेने के बाद एक बार चाभी फिर कांग्रेस और बाबूलाल मरांडी के झारखंड विकास मोर्चो के हाथ में आ गई है. राज्य की 81 विधानसभा सीटों में 18 पर भाजपा, 18 पर झामुमो, 13 पर कांग्रेस, 11 पर झाविमो, 6 पर आजसू, 5 पर राजद, 2 पर जदयू तथा 9 पर अन्य का कब्जा है. भाजपा की सरकार झामुमो के अतिरिक्त आजसू के सहयोग से चल रही थी. अब झामुमो के अलग हो जाने के बाद चाभी कांग्रेस और झाविमो के हाथ में आ गई है. दोनों दलों ने गठबंधन करके विधानसभा चुनाव लड़ा था. पर सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कांगेस क्या रवैया अपनाती है. जिस तरह की स्थिति है, उसमें कम ही संभावना है कि कांग्रेस एवं झाविमो किसी दूसरे की सरकार बनवाने में मदद करें.
कांग्रेस हाईकमान पूरे मामले पर नजर रखे हुए है तथा राज्य ईकाई से पल पल की खबर ले रहा है. सरकार बनाने की संभावनाओं पर भी विचार हो रहा है. अगर संभावना बनती है तो बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार बनाने की सोच सकती है. क्योंकि राज्य में 2014 के आम चुनाव में बीजेपी तथा झामुमो को टक्कर देने के लिए कांग्रेस को बाबूलाल मरांडी के साथ की जरूरत पड़ेगी. इस जमीनी हकीकत को कांग्रेस अच्छी तरह समझती है. अगर संभावनाएं नहीं बनी तो फिर राष्ट्रपति शासन या फिर चुनाव ही एक मात्र विकल्प होगा. कांग्रेस सरकार बनाने की संभावनाएं टटोलने के साथ दूसरी रणनीतियों पर भी विचार कर रही है.
सन 2000 में राज्य का गठन होने के बाद भाजपा नेता बाबूलाल मरांडी इस राज्य के पहले सीएम बने. नम्बर महीने में उन्होंने झारखंड की सत्ता संभाली. मार्च, 2003 में इस राज्य ने पहली राजनीतिक अस्थिरता का सामना किया. बाबूलाल मरांडी से नाराज तत्कालीन समता पार्टी एवं वनांचल कांग्रेस ने सरकार से समर्थन वापस लेकर उनके हाथ से कुर्सी खींच ली. पर राज्य का प्रभार देख रहे राजनाथ सिंह ने फिर जोड़-तोड़ करके मरांडी को हटाकर अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में फिर से भाजपा की सरकार का गठन करा दिया. उठा पटक और धमकी के बीच किसी तरह से अर्जुन मुंडा ने कार्यकाल पूरा किया. वर्ष 2005 में हुए दूसरे विधानसभा के चुनावों में त्रिशंकु विधानसभा का गठन होने के बाद पहली बार शिबू सोरेन राज्य के सीमए बने. पर वे नौ दिन से ज्यादा नहीं टिक पाए. बहुमत साबित नहीं होने के चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.
शिबू के इस्तीफा देने के बाद अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में एक बार फिर भाजपा की सरकार का गठन हुआ. लेकिन कांग्रेस ने निर्दलीय मधु कोड़ा को सरकार से अलग करके सितम्बर 2006 में अर्जुन मुंडा की सरकार को गिरा दिया. इसके बाद किसी भी राज्य में पहली बार निर्दलीय विधायक के नेतृत्व में सरकार का गठन हुआ. मधु कोड़ा राज्य के सीएम बने. मात्र अपने 23 माह के कार्यकाल में कोड़ा ने जो गुल खिलाए वो इतिहास बन चुका है. अरबों रुपये के भ्रष्टाचार के आरोप में झारखंड का यह पूर्व सीएम जेल की हवा खा रहा है. कोड़ा की सरकार के गिर जाने के बाद अगस्त, 2008 में शिबू सोरेन दूसरी बार राज्य के सीएम बने. लेकिन वे इस बार भी छह महीने से ज्यादा समय तक सीएम की कुर्सी पर काबिज नहीं रह पाए. विधान सभा चुनाव राजा पीटर से हारने की वजह से उन्हें सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी. उन्होंने जनवरी, 2009 में इस्तीफा दे दिया.
इसके बाद पहली बार राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा. लगभग एक सालों तक राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा रहा. 2009 में अंतिम महीनों में हुए विधानसभा चुनाव में राज्य में फिर से त्रिशंकु विधान सभा का गठन हुआ. 23 दिसम्बर को विधानसभा के गठन की अधिसूचना जारी होने के बाद शिबू सोरेन ने तीसरी बार भाजपा के सहयोग से राज्य की सत्ता संभाली. राज्य में बीजेपी के सहयोग से सरकार चला रहे गुरुजी ने अप्रैल 2010 में लोकसभा में केंद्रीय बजट पर भाजपा के कटौती प्रस्ताव के विरोध में यूपीए का समर्थन कर दिया. नाराज बीजेनी ने मई, 2010 में झामुमो सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया, जिससे सरकार गिर गई.
किसी भी दल के पास सरकार बनाने लायक संख्या बल न होने के चलते राज्य में दूसरी बार राष्ट्रपति शासन लगा. लगभग पांच महीने तक राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू रहने के बाद झामुमो ने बिना शर्त भाजपा को समर्थन देने की घोषणा की, जिसके बाद सितम्बर, 2010 में अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में भाजपा सरकार का गठन हुआ. मुंडा तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने. अब झामुमो ने मुंडा सरकार से समर्थन वापसी का निर्णय लेकर राज्य में ग्यारहवीं सरकार के गठन का रास्ता तैयार कर दिया है. एक बार फिर राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बन गया है. राज्य में किसी भी दल की सरकार बनती है तो उसके ऊपर भी अस्थिरता के बादल मंडराते रहेंगे, लिहाजा इस बार हर दल अपने कदम फूंक फूंक कर रखना चाहेगा.
नवम्बर 2000 में केंद्र में भाजपा शासित एनडीए ने तीन राज्यों का गठन किया था. पर तीनों राज्यों के भाग्य एक जैसे साबित नहीं हुए. छत्तीसगढ़ की जनता ने राज्य में एक ही सरकार बनाकर स्थिरता की मिसाल कायम की तो उत्तराखंड ने हर पांचवें साल सरकार बदल कर राजनीतिक परिपक्वता का उदाहरण पेश किया, पर झारखंड अपनी राजनीतिक अस्थिरता के लिए कुख्यात हुआ. बारह साल और ग्यारह सत्ता परिवर्तन, अजीब दास्तान बन गई है झारखंड में राजनीतिक अस्थिरता. तीन बार अर्जुन मुंडा, तीन बार शिबू सोरेन तथा एक-एक बार बाबूलाल मरांडी तथा मधु कोड़ा ने भी झारखंड पर राज किया. दो बार राष्ट्रपति शासन के सहारे राज्य का कामकाज चला. ये झारखंड की राजनीतिक अस्थिरता का ही असर रहा कि राज्य में एक निर्दलीय विधायक मुख्यमंत्री बनकर रिकार्ड कायम किया.
शिबू सोरेन यानी गुरुजी के भाजपा से समर्थन वापस लेने के बाद एक बार चाभी फिर कांग्रेस और बाबूलाल मरांडी के झारखंड विकास मोर्चो के हाथ में आ गई है. राज्य की 81 विधानसभा सीटों में 18 पर भाजपा, 18 पर झामुमो, 13 पर कांग्रेस, 11 पर झाविमो, 6 पर आजसू, 5 पर राजद, 2 पर जदयू तथा 9 पर अन्य का कब्जा है. भाजपा की सरकार झामुमो के अतिरिक्त आजसू के सहयोग से चल रही थी. अब झामुमो के अलग हो जाने के बाद चाभी कांग्रेस और झाविमो के हाथ में आ गई है. दोनों दलों ने गठबंधन करके विधानसभा चुनाव लड़ा था. पर सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कांगेस क्या रवैया अपनाती है. जिस तरह की स्थिति है, उसमें कम ही संभावना है कि कांग्रेस एवं झाविमो किसी दूसरे की सरकार बनवाने में मदद करें.
कांग्रेस हाईकमान पूरे मामले पर नजर रखे हुए है तथा राज्य ईकाई से पल पल की खबर ले रहा है. सरकार बनाने की संभावनाओं पर भी विचार हो रहा है. अगर संभावना बनती है तो बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार बनाने की सोच सकती है. क्योंकि राज्य में 2014 के आम चुनाव में बीजेपी तथा झामुमो को टक्कर देने के लिए कांग्रेस को बाबूलाल मरांडी के साथ की जरूरत पड़ेगी. इस जमीनी हकीकत को कांग्रेस अच्छी तरह समझती है. अगर संभावनाएं नहीं बनी तो फिर राष्ट्रपति शासन या फिर चुनाव ही एक मात्र विकल्प होगा. कांग्रेस सरकार बनाने की संभावनाएं टटोलने के साथ दूसरी रणनीतियों पर भी विचार कर रही है.
सन 2000 में राज्य का गठन होने के बाद भाजपा नेता बाबूलाल मरांडी इस राज्य के पहले सीएम बने. नम्बर महीने में उन्होंने झारखंड की सत्ता संभाली. मार्च, 2003 में इस राज्य ने पहली राजनीतिक अस्थिरता का सामना किया. बाबूलाल मरांडी से नाराज तत्कालीन समता पार्टी एवं वनांचल कांग्रेस ने सरकार से समर्थन वापस लेकर उनके हाथ से कुर्सी खींच ली. पर राज्य का प्रभार देख रहे राजनाथ सिंह ने फिर जोड़-तोड़ करके मरांडी को हटाकर अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में फिर से भाजपा की सरकार का गठन करा दिया. उठा पटक और धमकी के बीच किसी तरह से अर्जुन मुंडा ने कार्यकाल पूरा किया. वर्ष 2005 में हुए दूसरे विधानसभा के चुनावों में त्रिशंकु विधानसभा का गठन होने के बाद पहली बार शिबू सोरेन राज्य के सीमए बने. पर वे नौ दिन से ज्यादा नहीं टिक पाए. बहुमत साबित नहीं होने के चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.
शिबू के इस्तीफा देने के बाद अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में एक बार फिर भाजपा की सरकार का गठन हुआ. लेकिन कांग्रेस ने निर्दलीय मधु कोड़ा को सरकार से अलग करके सितम्बर 2006 में अर्जुन मुंडा की सरकार को गिरा दिया. इसके बाद किसी भी राज्य में पहली बार निर्दलीय विधायक के नेतृत्व में सरकार का गठन हुआ. मधु कोड़ा राज्य के सीएम बने. मात्र अपने 23 माह के कार्यकाल में कोड़ा ने जो गुल खिलाए वो इतिहास बन चुका है. अरबों रुपये के भ्रष्टाचार के आरोप में झारखंड का यह पूर्व सीएम जेल की हवा खा रहा है. कोड़ा की सरकार के गिर जाने के बाद अगस्त, 2008 में शिबू सोरेन दूसरी बार राज्य के सीएम बने. लेकिन वे इस बार भी छह महीने से ज्यादा समय तक सीएम की कुर्सी पर काबिज नहीं रह पाए. विधान सभा चुनाव राजा पीटर से हारने की वजह से उन्हें सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी. उन्होंने जनवरी, 2009 में इस्तीफा दे दिया.
इसके बाद पहली बार राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा. लगभग एक सालों तक राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा रहा. 2009 में अंतिम महीनों में हुए विधानसभा चुनाव में राज्य में फिर से त्रिशंकु विधान सभा का गठन हुआ. 23 दिसम्बर को विधानसभा के गठन की अधिसूचना जारी होने के बाद शिबू सोरेन ने तीसरी बार भाजपा के सहयोग से राज्य की सत्ता संभाली. राज्य में बीजेपी के सहयोग से सरकार चला रहे गुरुजी ने अप्रैल 2010 में लोकसभा में केंद्रीय बजट पर भाजपा के कटौती प्रस्ताव के विरोध में यूपीए का समर्थन कर दिया. नाराज बीजेनी ने मई, 2010 में झामुमो सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया, जिससे सरकार गिर गई.
किसी भी दल के पास सरकार बनाने लायक संख्या बल न होने के चलते राज्य में दूसरी बार राष्ट्रपति शासन लगा. लगभग पांच महीने तक राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू रहने के बाद झामुमो ने बिना शर्त भाजपा को समर्थन देने की घोषणा की, जिसके बाद सितम्बर, 2010 में अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में भाजपा सरकार का गठन हुआ. मुंडा तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने. अब झामुमो ने मुंडा सरकार से समर्थन वापसी का निर्णय लेकर राज्य में ग्यारहवीं सरकार के गठन का रास्ता तैयार कर दिया है. एक बार फिर राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बन गया है. राज्य में किसी भी दल की सरकार बनती है तो उसके ऊपर भी अस्थिरता के बादल मंडराते रहेंगे, लिहाजा इस बार हर दल अपने कदम फूंक फूंक कर रखना चाहेगा.
बुधवार, 2 जनवरी 2013
वे कहते थे
वो कहते थे पत्थर पर दूब उगा नहीं करता
मुझे लगता था उगा लूंगा पत्थर पर दूब
वो कहते थे रेत में पानी मिला नहीं करता
मुझे लगता था रेत से निकाल लूंगा पानी की बूंद
वो कहते थे गरीबों को सपने देखने का हक नहीं
मुझे लगता था ख्वाब को बना लूंगा हकीकत
वो कहते थे प्यार भी बिकता है आजकल
मुझे लगता था दिल देकर किसी को बना लूंगा जीनत
पर शायद वे सच कहते थे, बहुत सच
तभी तो पत्थर दिल आंखों में डाल जाते हैं रेत
तभी तो मुफलिसों के सपने नहीं होते पूरे
तभी तो हर प्यार का लग जाता है एक कीमत
वे शायद दिमाग से सोचते थे, दिल से नहीं
उन्हें शायद इस दुनिया में जीने का हुनर पता था
वे पत्थर दिल भी नहीं थे, पर सपने तोड़ना आता था
वे जानते थे दिल की हकीकत और दिमाग की कीमत
मुझे लगता था उगा लूंगा पत्थर पर दूब
वो कहते थे रेत में पानी मिला नहीं करता
मुझे लगता था रेत से निकाल लूंगा पानी की बूंद
वो कहते थे गरीबों को सपने देखने का हक नहीं
मुझे लगता था ख्वाब को बना लूंगा हकीकत
वो कहते थे प्यार भी बिकता है आजकल
मुझे लगता था दिल देकर किसी को बना लूंगा जीनत
पर शायद वे सच कहते थे, बहुत सच
तभी तो पत्थर दिल आंखों में डाल जाते हैं रेत
तभी तो मुफलिसों के सपने नहीं होते पूरे
तभी तो हर प्यार का लग जाता है एक कीमत
वे शायद दिमाग से सोचते थे, दिल से नहीं
उन्हें शायद इस दुनिया में जीने का हुनर पता था
वे पत्थर दिल भी नहीं थे, पर सपने तोड़ना आता था
वे जानते थे दिल की हकीकत और दिमाग की कीमत
जिंदगी कहां इतनी सहज सरल है
जिंदगी कहां इतनी सहज सरल है
राहें टेढ़ी मेढ़ी हैं, पगडंडियों में दलदल है
पी गए जिसे अमृत समझकर दोस्तों
वो तो वास्तव में गले में उतरा गरल है..
विश्वास का टूटना ही लिखा है किताबों में
रिश्ता हिसाबों में भी कहां इतना सरल है
वे कहां आएंगे इस उजाड़ सी झोपड़ी में
उनके ख्वाबों में तो बड़ा सा इक महल है.
राहें टेढ़ी मेढ़ी हैं, पगडंडियों में दलदल है
पी गए जिसे अमृत समझकर दोस्तों
वो तो वास्तव में गले में उतरा गरल है..
विश्वास का टूटना ही लिखा है किताबों में
रिश्ता हिसाबों में भी कहां इतना सरल है
वे कहां आएंगे इस उजाड़ सी झोपड़ी में
उनके ख्वाबों में तो बड़ा सा इक महल है.
इसी साल तो इंसानियत की भी बेरहमी से हत्या हुई
प्रत्येक बार की तरह इस बार भी मात्र कुछ घंटों
के बाद पुराने कैलेंडर देश की सिस्टम की तरह बेकार हो जाएंगे, पुराने पड़
जाएंगे. गनीमत है कि लोगों के पास अपनी जरूरत के अनुसार नया कैलेंडर बदलने
का अधिकार है, सामर्थ्य है. पर हम इसके अलावा कुछ भी नहीं बदल सकते. ना
तो इस देश को ना देशवासियों के नियति को, ना ही इसको चलाने वालों की नीयत
को. अपने भीतर इतिहास, कुछ खुशियां और बहुत सारा दर्द लिए यह साल भी सालता
हुआ बीत जाने का आतुर है. इस साल ही तो आम और खास के बीच की खाई और गहरी
हुई है. इस साल ही तो सत्ता चलाने वाले कुछ ज्यादा ही गूंगे और बहरे हुए
हैं. इसी साल तो संवेदनाएं आईसीयू में जाती दिखीं. इसी साल तो साढ़े छह दशक
का दर्द गुस्सा बनकर सड़कों पर उतरा. इसी साल तो इतिहास के पन्नों में
सिमटे जन आंदोलन प्रसव पीड़ा से अकुलाए हैं. और इसी साल तो इंसानियत की भी
बेरहमी से हत्या हुई है. इसी साल तो चुप्पियों ने तकलीफ पहुंचाया. इसी साल
2012 ने इंडिया और भारत के बीच की दूरियों को भी बढ़ाया. इंडिया सैकड़ों
रुपये का खाना अपनी प्लेटों में छोड़ता रहा वहीं भारत के लोगों को पेट
भरने लिए 26 रुपये पर्याप्त साबित हुआ. खैर. उम्मीद है कि नया साल सबके
लिए शुभ होगा.
जनसंदेश टाइम्स में सैलरी को लेकर पेजीनेटरों का हंगामा
जनसंदेश टाइम्स, बनारस में फिर एक बार सैलरी को लेकर बवाल देखने को मिला. प्रबंधन ने अपने उन कर्मचारियों की सैलरी तो दे दी, जिनकी सैलरी खाते में जाती है, परन्तु नगद पैसा पाने वालों को सैलरी नहीं मिल पाई. बताया जा रहा है कि यहां पर दो तरह की व्यवस्था लागू है. कुछ कर्मचारियों की सैलरी सीधे उनके खाते में जाती है, जबकि तमाम को नकद पैसा दिया जाता है. हालांकि इसके बारे में आरोप लगाया जाता है कि यह ब्लैकमनी को सफेद करने की कोशिश में होता है. खैर.
अभी मामला ये है कि सोमवार को नगद सैलरी पाने वाले पेजीनेटर अमन कुमार कुमार को नवम्बर की सैलरी नहीं मिली. नाराज अमन ने सोमवार को कार्यालय में सैलरी के लिए हंगामा कर दिया, जिससे काम प्रभावित होने लगा. जिसके बाद अखबार की ऐसी-तैसी कर देने वाले विजय विनीत ने अपने पास से अमन को पैसा देकर मामले को बिगड़ने से बचाया. और अन्य लोगों को आश्वासन की घुट्टी पिलाकर मामले को सलटाया, जिसके बाद किसी तरह अखबार का काम पूरा हुआ.
मंगलवार की रात फिर बवाल हो गया. सात पेजीनेटरों ने सैलरी को लेकर हड़ताल कर दिया. उन लोगों ने काम करने से इनकार कर दिया. प्रबंधन के हाथ-पांव फूल गए. सातों पेजीनेटर किसी भी तरीके से बिना सैलरी के मानने को तैयार नहीं थे. वे आश्वासन देने वाले विजय विनीत की भी बात मानने को तैयार नहीं थे. सूत्रों का कहना है कि बाद में संपादक एवं सीजीएम के हस्तक्षेप के बाद किसी तरह मामला सलटा. इन लोगों ने किसी तरह पैसे का जुगाड़ कर सभी सातों पेजीनेटरों को उपलब्ध करवाया, जिसके बाद अखबार का फिर से काम शुरू हो सका.
वैसे भी सूत्रों का कहना है कि जिस तरह से अखबार की आंतरिक स्थिति है तथा अखबार में जूनियर लेबल के लोगों का हस्तक्षेप बढ़ा है, उससे अखबार को चला पाना बहुत ही मुश्किल है. पेज के लेआउट का एबीसी नहीं जानने वाले लोग इसमें हस्तक्षेप करने लगे हैं तभी से इस तरह की स्थिति पैदा हुई है. सूत्र यह भी बताते हैं कि प्रबंधन ने अब इस अखबार को घाटे की स्थिति में चलाने के मामले में हाथ खड़ा कर लिया है. कहा जा रहा है कि मार्च तक इस अखबार को ''पैसे लाओ और अखबार चलाओ'' की स्थिति में लाए जाने का निर्देश दे दिया गया है. अगर मार्च तक स्थिति नहीं सुधरी तो संभव प्रबंधन अपने इस सफेद हाथी पर ताला जड़ देगा
अभी मामला ये है कि सोमवार को नगद सैलरी पाने वाले पेजीनेटर अमन कुमार कुमार को नवम्बर की सैलरी नहीं मिली. नाराज अमन ने सोमवार को कार्यालय में सैलरी के लिए हंगामा कर दिया, जिससे काम प्रभावित होने लगा. जिसके बाद अखबार की ऐसी-तैसी कर देने वाले विजय विनीत ने अपने पास से अमन को पैसा देकर मामले को बिगड़ने से बचाया. और अन्य लोगों को आश्वासन की घुट्टी पिलाकर मामले को सलटाया, जिसके बाद किसी तरह अखबार का काम पूरा हुआ.
मंगलवार की रात फिर बवाल हो गया. सात पेजीनेटरों ने सैलरी को लेकर हड़ताल कर दिया. उन लोगों ने काम करने से इनकार कर दिया. प्रबंधन के हाथ-पांव फूल गए. सातों पेजीनेटर किसी भी तरीके से बिना सैलरी के मानने को तैयार नहीं थे. वे आश्वासन देने वाले विजय विनीत की भी बात मानने को तैयार नहीं थे. सूत्रों का कहना है कि बाद में संपादक एवं सीजीएम के हस्तक्षेप के बाद किसी तरह मामला सलटा. इन लोगों ने किसी तरह पैसे का जुगाड़ कर सभी सातों पेजीनेटरों को उपलब्ध करवाया, जिसके बाद अखबार का फिर से काम शुरू हो सका.
वैसे भी सूत्रों का कहना है कि जिस तरह से अखबार की आंतरिक स्थिति है तथा अखबार में जूनियर लेबल के लोगों का हस्तक्षेप बढ़ा है, उससे अखबार को चला पाना बहुत ही मुश्किल है. पेज के लेआउट का एबीसी नहीं जानने वाले लोग इसमें हस्तक्षेप करने लगे हैं तभी से इस तरह की स्थिति पैदा हुई है. सूत्र यह भी बताते हैं कि प्रबंधन ने अब इस अखबार को घाटे की स्थिति में चलाने के मामले में हाथ खड़ा कर लिया है. कहा जा रहा है कि मार्च तक इस अखबार को ''पैसे लाओ और अखबार चलाओ'' की स्थिति में लाए जाने का निर्देश दे दिया गया है. अगर मार्च तक स्थिति नहीं सुधरी तो संभव प्रबंधन अपने इस सफेद हाथी पर ताला जड़ देगा
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