बुधवार, 9 जनवरी 2013

शहर का बदलाव

उम्‍मीदों भरी एक टोकरी लेकर
अरमानों के रथ पर हुआ था सवार
मां से भी तो लिया था आशीष
तभी तो निकल पाया था अपने गांव से

सोचा था वो अभी भी अपने जैसे होंगे
शहर आए वक्‍त ही कितना बीता था
वो तो गांव से दूर हुए थे मजबूरी में
वो दूर कहां हुए थे मेरे दिल की छांव से

पर शहर क्‍या रिश्‍तों को भूल जाता है
ये सवाल अब भी तो मेरी समझ में नहीं आता है
फिर बचपन के वादे क्‍यों नहीं आए उन्‍हें याद
क्‍यों यादों को मार दी ठोकर खुद अपने पांव से

हमें गम तो उस ठोकर का भी नहीं
हमें तो उनके बदल जाने का भी दर्द नहीं
हम तो परेशान हैं उनकी आंखों की चुप्‍पी से
गूंगा हरिया भी तो खुश होता था उनकी कांव कांव से.

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